scorecardresearch

George Orwell Birth Anniversary: कहानी बिहार के मोतिहारी में जन्म लेने वाले उस अंग्रेजी लेखक की, जिसने अपनी कलम से रच दिया इतिहास

जॉर्ज ऑरवेल ने परिवार में पैसों की दिक्कतों के चलते हायर स्टडीज करने के बजाय इंडियन इम्पीरियल पुलिस को ज्वाइन कर लिया. उनकी सबसे पहली पोस्टिंग बर्मा में हुई थी.

जॉर्ज ऑरवेल जॉर्ज ऑरवेल
हाइलाइट्स
  • 1 साल की उम्र में चले गए थे इंग्लैंड

  • अपने अनुभवों को किताबों में पिरोया

किताब के शौक़ीन लोगों को जॉर्ज ऑरवेल का नाम सुनते ही एनिमल फॉर्म और 1984 की याद आती होगी. लेकिन क्या आप जानते हैं कि इस अंग्रेजी लेखक का जन्म भारत में ही हुआ था. उनका जन्म बिहार के मोतिहारी जिले में हुआ था. दरअसल ऑरवेल के पिता ब्रिटिश राज की भारतीय सिविल सेवा के अधिकारी थे. ऑरवेल का पूरा नाम 'एरिक आर्थर ब्लेयर' था. ऑरवेल एक ऐसे पॉलिटिकल राइटर थे, जो अपनी रचनाओं के जरिए समाज की बुराइयों को स्पष्ट रूप से सभी के सामने ला रहे थे. 

1 साल की उम्र में चले गए थे इंग्लैंड
ऑरवेल के जन्म के साल भर बाद ही उनकी मां अपनी दो बेटियों और ऑरवेल को लेकर इंग्लैंड चली गई थीं. जहां वो 19 साल तक रहे. ऑरवेल का जन्म एक मध्यमवर्गीय परिवार में हुआ था. 8 साल की उम्र में ऑरवेल को बोर्डिंग स्कूल भेज दिया गया था. जब ऑरवेल स्कूल गए तो कम पैसे होने के कारण उनके साथ भेदभाव होता था, अपने साथ हुए इस भेदभाव के अनुभव को ऑरवेल ने अपनी ऑटोबायोग्राफी "सच, सत वर द जॉय्ज़" में लिखा था, जिसकों उनके मरने के बाद 1953 में पब्लिश किया गया. हालांकि ऑरवेल पढ़ने-लिखने में काफी अच्छे थे, जिस कारण उनका दाखिला स्कॉलरशिप के आधार पर इंग्लैंड से सबसे अच्छे स्कूल एटॉन में हुआ.

अपने अनुभवों को किताबों में पिरोया
उसके परिवार में पैसों की दिक्कतों के चलते उन्होंने हायर स्टडीज करने के बजाय बर्मा में इंडियन इम्पीरियल पुलिस को ज्वाइन कर लिया. उनकी सबसे पहली पोस्टिंग बर्मा में हुई थी, जहां पर उन्होंने देखा कि कैसे अंग्रेजी हुकूमत बर्मा के लोगों पर उनकी मर्जी के खिलाफ राज कर रही थी. धीरे-धीरे उन्हें अपनी नौकरी पर धिक्कार होने लगा. अपने इस अनुभव को ऑरवेल ने अपने नॉवेल 'बर्मीज डेज़' में भी लिखा है.  कुछ दिन बाद वो बर्मा छोड़ कर इंग्लैंड वापस चले गए. लेकिन एक टीस उन्हें बार-बार कचोटती थी, कि रंग और जाति के भेदभाव के कारण वो बर्मा के लोगों के लिए काम नहीं कर पाए. इसी बाहर निकलने के लिए उन्होंने यूरोप के ऑउटकॉस्ट और गरीबों के बीच रहना शुरू कर दिया. स्पेन के गृह युद्ध में भी वो लड़े थे. इस युद्ध में मिले अनुभवों को उन्होंने ‘होमेज टू कैटेलोनिया’ में लिखा है. जॉर्ज ऑरवेल ने अपने जीवन में पत्रकारिता भी की थी. जॉर्ज ऑरवेल का असली नाम एरिक ऑर्थर ब्लेयर था लेकिन जब उन्होंने लिखना शुरू किया तो जॉर्ज ऑरवेल नाम का इस्तेमाल उन्होंने खुद के लिए करना शुरू किया.

क्या इमरजेंसी से था ऑरवेल की इस किताब का लिंक
ऑरवेल ने अपने जीवनकाल में बहुत सी किताबें लिखी, जिसमें 1949 में प्रकाशित उनका उपन्यास 'Nineteen Eighty-Four' काफी चर्चित रहा. दरअसल अपने इस उपन्यास में उन्होंने उस दौर की कल्पना की जिसमें शासक सत्ता के खिलाफ सवाल उठाने वाली आवाज को खामोश करने की कोशिश करना चाहता है. वो शासक विद्रोह करने वालों का नामोनिशान मिटा देना चाहता है. बाद में कई लोगों को इस किताब का लिंक इंदिरा गांधी के 1975 में लगाए गए आपातकाल से भी जोड़ा. क्योंकि किताब का नाम 'Nineteen Eighty-Four' है और फिर 1975 में आपातकाल भी लगा. हालांकि इन दोनों चीजों का सीधा कोई कनेक्शन नहीं है. इस किताब में जॉर्ज ऑरवेल की कल्पना बेहद चौंकाने वाली है. इसको पढ़कर ऐसा लगता है कि मानों कोई 1949 में ही 1975 की भविष्यवाणी कर रहा हो. जॉर्ज ऑरवेल का निधन 21 जनवरी 1950 में महज 47 साल की उम्र में हो गया.

बिहार के मोतिहारी में उनका घर आज भी है. कुछ साल पहले बिहार की नीतीश सरकार ने उनके टूटे पड़े घर को म्यूजियम बनाने का ऐलान भी किया था. पत्रकार और डॉक्यूमेंट्री फिल्म मेकर विश्वजीत मुखर्जी ने मोतिहारी और जॉर्ज ऑरवेल के ऊपर डॉक्यूमेंट्री फिल्म बनाई है.