
kutch 300 year old Copper Bell
kutch 300 year old Copper Bell वैसे तो घंटियों की गूंज हम सभी ने सुनी है, लेकिन गुजरात के कच्छ के निरोना गांव में सुनाई देने वाली घंटियों की गूंज जरा अलग है. अलग इसलिए क्योंकि इसे 300 साल पुरानी परंपरा के जरिए बनाया गया है. निरोना गांव के ही अली मोहम्मद सिद्धिकी इस पुश्तैनी परंपरा के जरिए घंटियां बनाने का काम कर रहे हैं.
300 साल पुरानी है ये कला
अली मोहम्मद बताते हैं कि यह कला 300 साल पुरानी है और उनके ही परिवार ने इसे भारत में लाया था, तब से लेकर अब तक उनका परिवार यही काम कर रहा है. घंटियों की खास बात यह है कि इनमें बाकी घंटियों की तरह किसी तरह वेल्डिंग का काम नहीं किया जाता. इन्हें 100% सिर्फ और सिर्फ हाथों से ही बनाया जाता है.

दूसरी जगह बनाने वाली घंटों में वेल्डिंग और ढांचे का इस्तेमाल किया जाता है, लेकिन क्योंकि यह पारंपरिक तरीके से कच्छ की पहचान है. इसलिए इन्हें जोड़ने के लिए भी सिर्फ हथौड़े और हाथों का इस्तेमाल किया जाता है.
कला के जरिए मिल रहा रोजगार
अली मोहम्मद बताते हैं कि उनकी कला ही उनकी कमाई का जरिया है. इस काम के जरिए उनके साथ पुरुषों के अलावा महिलाएं भी जुड़ी हुई हैं. बताते हैं कि आज जहां कुछ समय पहले कच्छ के इस गांव में लोग कमाई का साधन नहीं ढूंढ पा रहे थे, उसी गांव में आज लोगों को इसी कला के जरिए रोजगार मिल रहा है.
अली मोहम्मद सिद्दीकी के परिवार की इस कला की प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी सराहना कर चुके हैं. अली बताते हैं कि दिल्ली के हुनर हाट में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने खुद आकर उनकी अलग-अलग तरंगों वाली घंटियों को बजाकर देखा था.उसके बाद से लोगों में जानने की उत्सुकता है कि आखिर यह घंटियों की खास बात क्या है और कैसे बनाई जाती है. अली बताते हैं कि इन घंटियों को देखने के लिए दूर-दूर से पर्यटक आते हैं. माधुरी भी इसके बनने की प्रक्रिया को देख हैरान रह जाते हैं.

फाइनल टच देने के लिए भट्टी में डाला जाता है
दरअसल, इसकी बनने की प्रक्रिया थोड़ी अलग है. पहले कॉपर शीट को गोलाकार में मोड़ा जाता है और उसके बाद हथौड़े के जरिए आकार दिया जाता है. घंटे की ऊपर की छतरी लगाने के लिए भी कटर के जरिए कॉपर शीट को काटकर हथौड़े के जरिए ही फिट किया जाता है. एक ढांचा तैयार होने के बाद उसके गूंज की जांच परख की जाती है. यदि उसकी आवाज उसके आकार के मुताबिक सही है तो फिर उसे रंग चढ़ाने के लिए और फाइनल टच देने के लिए भट्टी में डाला जाता है.
विदेशों से भी इन घंटियों की खूब है डिमांड
भट्टी में रंग चढ़ाने का काम महिलाओं द्वारा किया जाता है. इसके बाद घंटों के अंदर बैंबू की लकड़ियों के टुकड़े लगाए जाते हैं, जिसे बजाकर उसकी आवाज आप सुन सकते हैं. अली बताते हैं कि भारत में ही नहीं बल्कि विदेशों से भी इन घंटियों की खूब डिमांड आ रही है. ज्यादातर डिमांड अमेरिका से आती है.
वे कहते हैं कि उन्हें बहुत खुशी है कि आज उनकी कला से उनके गांव की पहचान सिर्फ देश ही नहीं बल्कि विदेशों में भी हो रही है. अरुण का यही सपना है कि आने वाले समय में उनकी आने वाली पीढ़ी उनके इस कला को आगे लेकर जाएं.