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मुगल काल में भी मनाई जाती थी दीपावली, लाल क‍िले पर होता था भव्य आयोजन

आकाश दिया जलाने की पंरपरा के साथ ही शाहजहां ने दिवाली की खासियत को कुछ और ही खास बना दिया. आकाश दीपक 40 गज ऊंचे खंभे पर लगाया गया था. इतनी ऊंचाई पर होने की वजह से इस दीप ने ना केवल लाल किले को रौशन किया बल्कि पूरी चांदनी चौक ही रैशनी में डूब गई थी.

पूरे देश में आज मनाई जा रही है दिवाली पूरे देश में आज मनाई जा रही है दिवाली
हाइलाइट्स
  • हिंदु-मुस्लिम एकता की याद दिलाती दिवाली

  • जश्ने-चिराग़ह के नाम से मुग्ल मनाते थे दिवाली

सभी के दीप सुंदर है हमारे क्या तुम्हारे क्या, उजाला हर तरफ है इस किनारे क्या उस किनारे क्या, हाफिज़ बनारसी का ये शेर कहीं ना कहीं पूरे भारत के अलग अलग धर्मों को एक ही रंग में रगां बताता मालूम पड़ता है, तभी तो आज दिवाली के मौके पर इस शेर को लिखने की जरूरत पड़ी, इस शेर को इसलिए भी लिखा जाना चाहिए क्योंकि पूरे भारत में सभी धर्म के लोग दिवाली मना रहे हैं, चाहे वो पूरानी दिल्ली की गलियां हो या निजामुद्दीन औलिया की दरगाह, जहां पर बाबा की मजार पर दीपों की जगमग ने सबको ये बता दिया है हां यही असली भारत की तस्वीर है. 

दिवाली हो या जश्ने-चिरागह, मकसद बस प्यार

यूं तो दिवाली का त्योहार सभी धर्मों के लोगों को दीप की रौशनी में उसी रंग में रंग देता है, जिस रौशनी में सभी एक से नजर आते हैं. ऐसे में दिल्ली का लाल किला उस जमाने की यादें दिलाता है जब पूरे लाल किले को दीपों से जगमग कर दिया जाता था, दीपों के त्योहार दिवाली को जश्न चिराग़ह के नाम खुद उस समय के मुगल बादशाह मनाया करते थे, इसके पीछे उनका मकसद शांति और सौहार्द कायम करना था. आज की ही तरह तैयारियों में कोई कमी नहीं होती थी, और दिवाली के लिए तैयारी पूरे एक महीने पहले ही शुरू हो जाया करती थी, आगरा, मथुरा, भोपाल और लखनऊ से अच्छे हलवाई बुलाए जाते थे. शुद्ध देसी घी में मिठाइयां बनाने के लिए आस पास के गांवों में पहले की घी का ऑर्डर दे दिया जाता था, और दिवाली के दिन किले के आसपास आतिशबाजी की जाती थी.  महल को दीयों, झूमरों, चिरागदानों (दीपक स्टैंड), और फानूस (पेडस्टल झूमर) से सजाया जाता था. 

जब शाहजहां ने जलाया आकाश दीपक और रौशन हो गयी पूरी दिल्ली

दिल्ली के इतिहासकार आरवी स्मिथ बताते हैं कि मुगल सम्राट अकबर ने आगरा में शाही दिवाली समारोह की परंपरा शुरू की थी, जिसे उनके उत्तराधिकारियों ने 1857 के विद्रोह के बाद अंग्रेजों के मुगल साम्राज्य पर कब्जा कर लेने तक जारी रखा. दिल्ली के देश की राजधानी बनने के बाद शाहजहां ने लाल किले के अंदर दिवाली मनाने की पंरपरा शुरू की. आकाश दिया जलाने की पंरपरा के साथ ही शाहजहां ने दिवाली की खासियत को कुछ और ही खास बना दिया. आकाश दीपक 40 गज ऊंचे खंभे पर लगाया गया था. इतनी ऊंचाई पर होने की वजह से इस दीप ने ना केवल लाल किले को रौशन किया बल्कि पूरी चांदनी चौक ही रैशनी में डूब गई थी. आरवी स्मिथ आगे बताते हैं कि लगभग चार टन के कपास के तेल के दीपक पूरे किले में लगाए गए थे. इन दीपों से किले की सिढ़ियों की खूबसूरती ऐसी उभर कर सामने आई थी मानों चांद जमीन पर उतर आया हो. 

आज की तरह तब भी हिंदु-मुस्लिम एक हो जाया करते थे

इस दौर अमीर व्यापारी भी अपनी हवेलियों को मिट्टी के दीयों से रोशन करते थे.  साथ ही हिंदू परिवार चांदनी चौक के बीच से गुजरने वाली नहर पर दीया लगाते थे. गुरुद्वारा सीसगंज में सिखों ने पैसे जमा कर के तेल बांटे और मुसलमानों ने  कपास  के तेल और बत्ती बटवाई थी. पुरानी दिल्ली के लोग आज भी याद करते हैं कि "हमने अपने बुजुर्गों से सुना है कि चांदनी चौक से फतेहपुरी तक का पूरा हिस्सा पानी में लौ (आग) की तरह चमका करता था. 

बहादुर शाह ज़फर ने करवाई थी मां लक्ष्मी की पूजा

कॉलमयुनिस्ट फिरोज बख्त अहमद बताते हैं कि अंतिम मुगल सम्राट बहादुर शाह जफर के शासनकाल के दौरान किले में लक्ष्मी पूजा का आयोजन किया जाता था.  पूजा सामग्री (पूजा के लिए प्रयुक्त सामग्री) चांदनी चौक के कटरा नील से मंगवाई गई थी. “आतिशबाज़ी का सामान जामा मस्जिद के पीछे पाइवलन इलाके से आती थी. दिवाली की सारी मिठाईयां जैसे खीर, खांड, मेवा, सभी महल में ही बनवाई जाती थी, बड़ी संख्या में लोग किले के बाहर मैदान में इकट्ठा होते थे और का मजा लेते थे. ये आतिशबाज़ी जफर के सेना जनरलों और अधिकारियों की देखरेख में आयोजित किया जाता था. 

विलियम डेलरिम्पल की किताब , 'द लास्ट मुगल: द फॉल ऑफ डेल्ही, 1857' में लिखा है कि  " बहादुर शाह जफर सात तरह के अनाज को अपने वजन के जितना तौल ले कर  गरीबों के बीच इन अनाजों को बंटवाते थे. ये कहना गलत नहीं होगा कि किले में दिवाली का इस तरह का आयोजन इस बात की निशानी है कि त्योहार हमेशा सांप्रदायिक सद्भाव का जश्न मनाने का एक मौका देती हैं.  शाहजहाँनाबाद के बुजुर्ग आज ये याद करते हैं कि कैसे  हिंदु पड़ोसी मुस्लिम पड़ोसियों को मिठाई, खीर-बताशे और पटाखों से भरी एक थाली भेजी जाती थी. वैसे देखा जाए तो ये पंरपरा आज भी यही है, दिवाली हो या दशहरा,ईद हो या बकरीद मिठाईयां और सिवाईयां खाने के बहाने आज भी दो कौमें प्यार बांट ही रही हैं.