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नरम दिल इतने कि पक्षी की मौत के बाद बन गए शाकाहारी...पिता की हत्या हुई तो आंदोलन में कूदे, पढ़िए शिबू सोरेन के दिशोम गुरु से CM बनने की कहानी

Shibu Soren: 11 जनवरी 1944 को रामगढ़ जिले के नेमरा गांव में जन्मे शिबू सोरेन का जीवन संघर्ष और सामाजिक बदलाव की मिसाल रहा. आदिवासी समाज के उत्थान के लिए समर्पित उनका जीवन और राजनीति की राह पर उनके पिता सोबरन सोरेन की हत्या ने उन्हें एक नई दिशा दी.

Shibu Soren Shibu Soren

झारखंड के पूर्व मुख्यमंत्री और दिशोम गुरु के नाम से मशहूर शिबू सोरेन का निधन हो गया. वे 81 साल के थे. झारखंड के आदिवासी समुदायों के उत्थान के लिए अपने जीवन को समर्पित करने वाले शिबू सोरेन का निधन देश के लिए एक अपूरणीय क्षति है.

पिता की हत्या के बाद आंदोलन में कूदे
11 जनवरी 1944 को रामगढ़ जिले के नेमरा गांव में जन्मे शिबू सोरेन का जीवन संघर्ष और सामाजिक बदलाव की मिसाल रहा. आदिवासी समाज के उत्थान के लिए समर्पित उनका जीवन और राजनीति की राह पर उनके पिता सोबरन सोरेन की हत्या ने उन्हें एक नई दिशा दी. यह घटना उनके जीवन का वह मोड़ साबित हुई, जिसने उन्हें सामाजिक न्याय और आदिवासी अधिकारों के लिए संघर्ष करने वाला महान नेता बना दिया.

साधारण आदिवासी परिवार से राजनीति के शिखर तक
हजारीबाग के नेमरा गांव में जन्मे शिबू सोरेन एक साधारण आदिवासी परिवार से थे. उनके दादा चरण मांझी रामगढ़ के टैक्स तहसीलदार थे, जिससे परिवार की आर्थिक स्थिति ठीक-ठाक थी. उनके पिता सोबरन सोरेन आदिवासी अधिकारों के लिए सक्रिय थे. प्रारंभिक शिक्षा गांव में पूरी करने के बाद शिबू ने खेती में परिवार का सहयोग किया. 27 नवंबर 1957 को उनके पिता की हत्या ने उनके जीवन की दिशा बदल दी. पिता की हत्या ने शिबू सोरेन को आदिवासियों पर हो रहे अन्याय के खिलाफ आवाज उठाने के लिए प्रेरित किया.

शोषण के खिलाफ आंदोलन से ‘दिशोम गुरु’ बनने तक
पिता की हत्या के बाद शिबू ने महाजनी प्रथा के खिलाफ संघर्ष शुरू किया, जो आदिवासियों के आर्थिक शोषण का मुख्य कारण थी. उन्होंने ‘धनकटनी आंदोलन’ की शुरुआत की, जिसका मकसद आदिवासियों को उनकी जमीन और अधिकार दिलाना था. यह आंदोलन धीरे-धीरे झारखंड के कई हिस्सों में फैल गया.

4 फरवरी 1973 को उन्होंने बिनोद बिहारी महतो और एके राय के साथ मिलकर झारखंड मुक्ति मोर्चा (JMM) की स्थापना की, जो आदिवासी अधिकारों की रक्षा और अलग झारखंड राज्य की मांग के लिए काम करता रहा. उनके नेतृत्व में झामुमो ने कई जन आंदोलनों का सफल नेतृत्व किया, जिससे उन्हें ‘दिशोम गुरु’ यानी ‘देश का गुरु’ का सम्मान मिला.

राजनीतिक सफर और उपलब्धियां
शिबू सोरेन ने 1977 में दुमका लोकसभा सीट से चुनाव लड़ा था, लेकिन पहली बार हार का सामना करना पड़ा. 1980 में पहली बार सांसद बने और बाद में 1989, 1991, 1996, 2002, 2004, 2009 और 2014 में लगातार जीत हासिल की. कुल आठ बार दुमका से सांसद रहे. साथ ही वे 2002 में राज्यसभा सदस्य भी थे.

आदिवासी हितों के लिए अडिग संघर्ष
वे तीन बार झारखंड के मुख्यमंत्री रह चुके थे. 2004 में वे यूपीए सरकार में कोयला मंत्री बने, हालांकि पुराने विवादों के कारण इस्तीफा देना पड़ा. 2006 में फिर से मंत्री बने. राजनीतिक जीवन में कई कानूनी चुनौतियों और विवादों के बावजूद उन्होंने आदिवासी हितों के लिए मजबूती से लड़ाई लड़ी. उनका राजनीतिक जीवन विवादों से भी अछूता नहीं रहा. 1975 के चिरूडीह कांड में हिंसा भड़काने के आरोपों का सामना करना पड़ा, जिसमें 11 लोग मारे गए थे. इस मामले में गैर-जमानती वारंट जारी होने पर वे कुछ समय अंडरग्राउंड रहे, बाद में आत्मसमर्पण किया. 1994 में उनके निजी सचिव की हत्या के मामले में भी आरोप लगे थे, लेकिन बाद में कई मामलों में बरी भी हुए. इन चुनौतियों के बावजूद उन्होंने झारखंड मुक्ति मोर्चा के माध्यम से आदिवासी अधिकारों की लड़ाई जारी रखी.

पक्षी की मौत के बाद बन गए शाकाहारी
अपने बचपन की एक घटना ने शिबू सोरेन को अहिंसा और शाकाहार की ओर प्रेरित किया. 1953 में जब वे 9 साल के थे, एक कोयल पक्षी की अनजाने में मृत्यु ने उन्हें इतना प्रभावित किया कि उन्होंने मांसाहार छोड़ शाकाहारी जीवन अपनाया. अहिंसा उनके सामाजिक कार्यों में भी दिखी, हालांकि उनके कुछ आंदोलन हिंसक घटनाओं से भी जुड़े रहे.

उनकी पत्नी रूपी सोरेन जीवन भर उनका साथ देती रहीं. उनके बेटे हेमंत सोरेन आज झारखंड के मुख्यमंत्री हैं और झामुमो का नेतृत्व कर रहे हैं. छोटे बेटे बसंत सोरेन और पुत्रवधू कल्पना सोरेन भी राजनीति में सक्रिय हैं, जो सोरेन परिवार को झारखंड की राजनीति में मजबूत बनाता है.

पुत्र वियोग के दर्द से जूझती एक प्रेरक विरासत
शिबू सोरेन के जीवन की सबसे बड़ी व्यक्तिगत त्रासदी उनके बड़े पुत्र दुर्गा सोरेन के निधन की थी. इस घटना ने उन्हें गहरा आघात पहुंचाया और वे लंबे समय तक सदमे में रहे. बावजूद इसके वे गंभीर बीमारी से जूझते हुए भी सामाजिक और राजनीतिक रूप से सक्रिय रहे, जो उनके अटूट समर्पण को दर्शाता है.

-सत्यजीत की रिपोर्ट