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Kaifi Azmi Birth Anniversary: मदरसे के बाहर नज़्म पढ़ने वाला वो कम्युनिस्ट शायर जिसने कभी भगवान को मानने से इंकार नहीं किया

Kaifi Azmi Birthday Anniversary: कैफ़ी जब जवान हुए तो भगत सिंह और उनके साथियों को फांसी हो चुकी थी. ‘भारत छोड़ो’ आंदोलन जोड़ पकड़ रहा था. 1944 में शायरी की उनकी पहली किताब ‘झंकार’ छपी  और बहुत मशहूर हुई. तब देश को आजाद हुए महज़ दो साल ही हुए थे, देश का माहौल ठीक नहीं था. जगह जगह दंगे फसाद हो रहे थे, आलम अफरा -तफरी का था.

कैफ़ी आज़मी (File Photo) कैफ़ी आज़मी (File Photo)
हाइलाइट्स
  • आज़मगढ़ के मिजवाँ गांव में 14 जनवरी 1919 को जन्मे थे कैफ़ी आज़मी

  • 1974 में भारत सरकार ने उन्हें पद्मश्री से नवाजा था

Kaifi Azmi Birthday Anniversary: उर्दू के मशहूर शायर निदा फाज़ली लिखते हैं कि 'बुज़ुर्गों के ज़माने के उस नौजवान शायर की पैदाइश शिया घराने में हुई थी. इस घराने में हर साल मोहर्रम के दिनों में कर्बला के 72 शहीदों का मातम किया जाता था. तब ये उस नौजवान शायर के बचपन और लड़कपन के दिन थे. ये शायर इन मजलिसों (बैठने की जगह) में शरीक भी होता था और दूसरे अक़ीदतमंदों (भरोसा करने वाले लोगों) की तरह हज़रत मोहम्मद के नवासे और उनके साथियों की शहादतों पर रोता था. उसी दौरान इस शायर ने ये शेर लिखा - 

इतना तो जिंदगी में किसी की खलल पड़े, हंसने से हो सुकूं ना रोने से कल पड़े,

जिस तरह से हंस रहा हूं मैं, पी-पी केअश्केगम (गम के आसूं), यूं दूसरा हंसे तो कलेजा निकल पड़े.

ये नौजवान शायर कोई और नहीं ‘कैफ़ी आज़मी’ हैं. कैफ़ी की पूरी शायरी अलग-अलग लफ़्ज़ों में इन्हीं आँसुओं की दास्तान है. शायरी पढ़ कर ये अंदाजा लगाना मुश्किल है कि  ब कैफी ने ये शेर लिखा तब उनकी उनकी उम्र महज़ 11 साल थी. इस छोटी उम्र में कही हुई यह ग़ज़ल बेगम अख़्तर की आवाज़ में पूरे देश में मशहूर हो चुकी है.

कैफ़ी की पैदाइश उत्तर प्रदेश के आज़मगढ़ ज‍िले में मिजवाँ गांव में 14 जनवरी 1919 को हुई थी. कैफी का पूरा नाम अतहर अली रिज़वी था. कैफी उनका तखल्लुस (पेन नेम) है. घर का माहौल धार्मिक था, पिता ने धार्मिक शिक्षा के लिए उनका दाखिला लखनऊ में मदरसा ‘सुल्तानुल मदारिस’ में करा दिया. वहां कैफ़ी ने छात्रों का अंजुमन बनाकर हड़ताल शुरू कर दी. मदरसे के गेट पर वो रोज एक नज़्म पढ़ते थे.

बने जब ये हिन्दू मुस्लमान इंसां, उसी दिन ये कमबख़्त मर जाएगा

कैफ़ी जब जवान हुए तो भगत सिंह और उनके साथियों को फांसी हो चुकी थी. ‘भारत छोड़ो’ आंदोलन जोड़ पकड़ रहा था. 1944 में शायरी की उनकी पहली किताब ‘झंकार’ छपी और बहुत मशहूर हुई. तब देश को आजाद हुए महज़ दो साल ही हुए थे. देश का माहौल ठीक नहीं था. जगह जगह दंगे फसाद हो रहे थे, आलम अफरा-तफरी का था. उस वक्त के लिखने पढ़ने वालों पर साम्प्रदायिकता, मुल्क के बंटवारे का गहरा असर पड़ा. कैफ़ी आज़मी भी इससे अछूते नहीं रहे. तब कैफी ने लिखा - 

उसे मैंने ‘ज़हाक’ के भारी कांधे पे देखा था इक दिन
ये हिन्दू नहीं है मुसलमां नहीं
ये दोनों के मग्ज़ और खूं चाटता है
बने जब ये हिन्दू मुस्लमान इंसां
उसी दिन ये कमबख़्त मर जाएगा

कैफी का वो शेर जिसे सुन एक हसीना ने अपनी मंगनी तोड़ दी 

साल था 1947. भारत की आज़ादी का साल. हैदराबाद के एक मुशायरे में कैफ़ी आज़मी अपनी एक नज़्म सुना रहे थे तो उसे सुनाने के उनके अंदाज़ से एक हसीना को किसी और के साथ अपनी मंगनी तोड़ने के लिए मजबूर कर दिया था. लंबे क़द के दुबले पतले, पुरकशिश नौजवान अतहर अली रिज़वी उर्फ़ कैफ़ी आज़मी ने उस दिन अपनी घनगरज आवाज़ में जो नज़्म सुनवाई थी, उसका शीर्षक था 'ताज'

मरमरीं-मरमरीं (गोरा रंग, सफ़ेद), फूलों से उबलता हीरा
चाँद की आँच में दहके हुए सीमीं मीनार (चांदी का मीनार )
ज़ेहन-ए-शाएर से ये करता हुआ चश्मक पैहम ( लगातार आंखों से इशारा करना) 
एक मलिका का ज़िया-पोश ओ फ़ज़ा-ताब मज़ार

ख़ुद ब-ख़ुद फिर गए नज़रों में ब-अंदाज़-ए-सवाल
वो जो रस्तों पे पड़े रहते हैं लाशों की तरह
ख़ुश्क (सूखा हुआ) हो कर जो सिमट जाते हैं बे-रस आसाब (दिमाग की नसें)
धूप में खोपड़ियां बजती हैं ताशों की तरह

दोस्त ! मैं देख चुका ताजमहल
...वापस चल

बाद में उस हसीना से कैफी ने शादी कर ली. उस हसीना का नाम  शौकत था.  

शबाना और जावेद अख्तर की शादी के खिलाफ थे कैफ़ी

मशहूर गीतकार जावेद अख्तर कैफी आजमी से संगीत सीखने जाया करते थे. इस दौरान कैफी आजमी की बेटी शबाना आज़मी से जावेद अख्तर की नजदीकियां बढ़ी. धीरे-धीरे इसकी खबर जावेद की पत्नी हनी को हुई, जिसके बाद दोनों के बीच झगड़े शुरू हो गए. फिर जावेद ने हनी से तलाक लेने का फैसला कर लिया. तलाक के बाद एक तरफ जहां जावेद अख्तर शादी के लिए तैयार थे तो वहीं शबाना आजमी के पिता कैफी आजमी इस रिश्ते को लेकर तैयार नहीं थे.

कैफी को लगता था कि शबाना के चलते ही हनी और जावेद का रिश्ता टूट गया. वह यह नहीं चाहते थे कि शबाना, शादीशुदा शख्स से शादी करें. हालांकि शबाना ने पिता कैफी को यकीन दिलाया कि जावेद और हनी का रिश्ता, उनकी वजह से नहीं खत्म हुआ. जिसके बाद कैफी आजमी ने शबाना आजमी को जावेद अख्तर के साथ शादी करने की इजाजत दी.

शबाना आजमी की नजर में उनके अब्बा कैफी आजमी

शबाना ने एक इंटरव्यू में बताया कि कैफी आज़मी कभी दूसरों जैसे थे ही नहीं, लेकिन बचपन में ये बात मेरे नन्हे से दिमाग में समाती नहीं थी...न तो वो आफिस जाते थे, न अंग्रेजी बोलते थे और न दूसरों के डैडी और पापा की तरह पैन्ट और शर्ट पहनते थे-सिर्फ सफेद कुर्ता-पाजामा.  वो डैडी या पापा के बजाय अब्बा थे-ये नाम भी सबसे अलग ही था-मैं स्कूल में अपने दोस्तों से उनके बारे में बात करते कुछ कतराती ही थी-झूट-मूट कह देती थी-वो कुछ बिजनेस करते हैं-वर्ना सोचिए, क्या यह कहती कि मेरे अब्बा शायर हैं? शायर होने का क्या मतलब? यहीं न कि कुछ काम नहीं करते

बराबरी और आजादी की बात करने वाला शायर

क़द्र अब तक तेरी तारीख़ ने जानी ही नहीं
तुझमें शोले भी हैं बस अश्क़फ़िशानी ही नहीं
तू हक़ीक़त भी है दिलचस्प कहानी ही नहीं
तेरी हस्ती भी है इक चीज जवानी ही नहीं
अपनी तारीख का उनवान बदलना है तुझे
उठ मेरी जान! मेरे साथ ही चलना है तुझे (औरत)

कैफी ने इस शेर में बराबरी और आज़ादी की बात चीख चीख कर कही है.. कैफी ने उस दौर में औरतों के लिए बराबरी की आवाज उठाई जब उनका घर से निकलना भी मुश्किल था. यही वजह है कि कैफी को शोषित वर्ग का शायर भी कहा गया. वह समाज के शोषित वर्ग के शायर थे. उसी के पक्ष में क़लम उठाते थे. उसी के लिए मुशायरों के स्टेज से अपनी नज़्में सुनाते थे.

वैसे तो कम्युनिस्ट थे, लेकिन दूसरे कम्युनिस्टों की तरह उन्हें नास्तिक कहना मुनासिब नहीं. क्योंकि वो दूसरे कम्युनिस्टों की तरह खुदा को मानने से इंकार नहीं करते थे. लेकिन कम्युनिस्ट पार्टी से उन्हें बहुत लगाव था. 1962 में पार्टी लाइन को लेकर जब कम्युनिस्ट पार्टी में टूट पड़ी तो कैफी ने अपने दर्द को नज्म आवारा सज्दे के जरिए बयान किया.

इक यही सोज़े-निहां कूल मेरा सरमाया है
दोस्तों, मैं किसे ये सोज़े-निहां नज़र करूं
कोई क़ातिल सरे-मक़तल नज़र आता ही नहीं
किस को दिल नज़्र करूं और किसे जां नज़्र करूं

कैफ़ी हिंदुस्तान के तमाम शहरों में रहे लेकिन उनका दिल मिजवां में ही बसता था. आखिर में वो मिजवां आ गये, कैफ़ी आज़मी ने फिल्मों के गाने भी लिखे. हकीकत, कागज के फूल, शमा, शोला और शबनम, हीर-रांझा, अनुपमा, फिल्मों के गाने बहुत मशहूर हुए. 1974 में साहित्य और शिक्षा में योगदान के लिए भारत सरकार ने उन्हें पद्मश्री से नवाजा.

और फिर आया साल 2002, जब कैफ़ी ने 'कर चले हम फ़िदा जानो-तन साथियों, अब तुम्हारे हवाले वतन साथियों’ गाते हुए दुनिया से रुखस्ती ले ली. कैफी ने उर्दू अदब और हिन्दी सिनेमा को जो दिया वो हमेशा-हमेशा याद किया जाएगा.