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Ahmad Faraz Birth Anniversary: पैदाइशी पाकिस्तानी, लेकिन दिल हिंदुस्तानी! लौटा दिया था पाकिस्तान से मिला सबसे बड़ा अवार्ड

अहमद फ़राज़ हमेशा सत्ता के ख़िलाफ़ डटकर खड़े रहते थे. उन्हें किसी ओहदे या किसी ईनाम की कभी ख़्वाहिश न रही. 2004 में परवेज़ मुशर्रफ़ के दौर में पाकिस्तान का मशहूर नागरिक सम्मान हिलाल-ए-इम्तियाज़ से नवाज़ा गया लेकिन दो साल बाद ये अवार्ड सरकारी पॉलिसियों का विरोध करते हुये वापस कर दिया. उन्होंने कहा था कि हिलाल-ए-इम्तियाज़ एक बड़ा एवार्ड ज़रूर है पर बक़ौल जब वो अपनी फिक्री आँख से देखते हैं तो ये अवार्ड एक कलंक का टीका लगता है.

अहमद फराज़ अहमद फराज़
हाइलाइट्स
  • मशहूर शायर अहमद फराज़ का जन्मद‍िन आज

  • लौटा दिया था पाकिस्तान से मिला सबसे बड़ा अवार्ड

सुना है लोग उसे आँख भर के देखते हैं 

सो उस के शहर में कुछ दिन ठहर के देखते हैं 

सुना है रब्त है उस को ख़राब-हालों से 

सो अपने आप को बरबाद कर के देखते हैं

ये लाइनें किसी तआरुफ़ की मोहताज नहीं है. इन लाइनों को लिखने वाले शायर हैं अहमद फराज़.. अहमद फराज़ मतलब उर्दू अदब की वो दुनिया जिनके बगैर हिन्दुस्तान और पाकिस्तान दोनों अधूरे हैं. दुनिया के किसी भी मुल्क की बात कर लें वो मुल्क अहमद फराज़ के बिना मुकम्मल नहीं, जहां के लोग शेरो-शायरी में दिलचस्पी रखते हैं.

अहमद फराज की पैदाइश पाकिस्तान के नौशेरा जिले में 12 जनवरी 1931 को एक पठान परिवार में हुई. फराज़ ने पेशावर यूनिवर्सिटी से उर्दू और फ़ारसी से एमए किया. करियर की शुरूआत रेडियो पाकिस्तान से किया, फराज़ लेक्चरर भी रहे, नेशनल सेंटर के डायरेक्टर भी रहे. कई सालों तक नैशनल बुक फ़ाउंडेशन के चेयरमैन भी रहे. फराज का असली नाम सैयद अहमद शाह था. फ़राज़ उनका तखल्लुस (सरनेम) था.

अहमद फराज़ का प्यार में डूबा ये शेर  'रंजिश ही सही, दिल ही दुखाने के लिए आ ..आ फिर से मुझे छोड़ के जाने के लिए आ ' हो  या देश के बंटवारे पर लिखा 'अब किस का जश्न मनाते हो उस देस का जो तक़्सीम हुआ.. अब किस के गीत सुनाते हो उस तन-मन का जो दो-नीम हुआ.. ही क्यों ना हो, फराज ने अपनी तमाम शायरी से वही मुकाम हासिल किया जो अलामा इकबाल और फैज़ अहमद फैज़ ने हासिल किया. 

सत्ता के खिलाफ डट कर खड़े रहने वाले फराज़

अहमद फ़राज़ हमेशा सत्ता के ख़िलाफ़ डटकर खड़े रहते थे. उन्हें किसी ओहदे या किसी ईनाम की कभी ख़्वाहिश नहीं रही. 2004 में परवेज़ मुशर्रफ़ के दौर में पाकिस्तान का मशहूर नागरिक सम्मान हिलाल-ए-इम्तियाज़ से नवाज़ा गया लेकिन दो साल बाद ये अवार्ड सरकारी पॉलिसियों का विरोध करते हुए वापस कर दिया. उन्होंने कहा था कि हिलाल-ए-इम्तियाज़ एक बड़ा अवार्ड ज़रूर है पर बक़ौल जब वो अपनी फिक्री आंख से देखते हैं तो ये अवार्ड एक कलंक का टीका लगता है.

अहमद फराज़ ने कहा कि अवाम ने उन्हें जो मोहब्बत और इज़्ज़त दी है वो मौजूदा ग़ैर लोकतांत्रिक और ज़ालिम हुक्मरानों के दिए गए अवार्ड से कहीं ज़्यादा है. अहमद फ़राज़ ने पाकिस्तान की तमाम फ़ौजी हुकूमतों की आँखों में आँखें डालकर ललकारा और हर वक़्त के हुक्मरान को अपनी क़लम की तलवार का निशाना बनाया. जनरल जियाउल हक़ के दौर में फराज़ को वतन तक छोड़ना पड़ा. फराज़ ने वक़्त के किसी अवाम दुश्मन ताक़तों के आगे घुटने नहीं टेके बल्कि बुलंद आवाज़ में कहा,

“सामने उसके कभी उसकी सताईश ( जिसकी  तारीफ न हो सके )  नहीं की
दिल ने चाहा भी अगर होंठों ने जुंबिश (हलचल)  नहीं की

फराज़ को वो शेर जो मांओं को हमेशा उनकी याद दिलाता रहेगा

लफ़्ज़ को फूल बनाने वाली शख़्सियत ‘फ़राज़’ की मकबूलियत और शोहरत का अंदाजा लगाना मुश्किल है. लेकिन एक किस्सा इसे आसान किए देता है. वो किस्सा ये है कि एक बार अमेरिका में फराज़ का मुशायरा था, जिसके बाद एक लड़की उनके पास ऑटोग्राफ लेने आई. नाम पूछने पर लड़की ने कहा, “फराज़ा”. फराज़ ने चौंककर कहा, “यह क्या नाम हुआ?” तो बच्ची ने कहा, “मेरे मम्मी पापा के आप पसंदीदा शायर हैं. उन्होंने सोचा था कि बेटा होने पर उसका नाम फराज़ रखेंगे लेकिन बेटी हुई तो उन्होंने फराज़ा नाम रख दिया.” इस बात पर उन्होंने एक शेर कहा था.

और फराज़ चाहिए कितनी मोहब्बतें तुझे ,

मांओं ने तेरे नाम पर बच्चों का नाम रख दिया

अहमद फ़राज़ की शायरी मोहब्बत की कोख से निकल कर नफ़रतों की फ़िज़ाओं में भी मोहब्बत की दास्तानें लिखती है. अहमद फ़राज़ अपने आप में वो ज़माना है जिसने अपनी कलम से कई ज़माने लिख दिए हैं. अहमद फ़राज़ एक किरदार का नाम है जो अपने ख़्यालात और नज़रिये को सबसे अलग रखता है. फराज़ ने ऐसी शाहकार ग़ज़लें और नज़्में उर्दू अदब को दीं कि उर्दू अदब सदियों तक इसपर नाज़ करेगा. अहमद फ़राज़ की मक़बूलियत सिर्फ़ अपने मुल्क पाकिस्तान तक महदूद नहीं थी बल्कि सरहद पार का हर एक मुशायरा बिना इनकी मौजूदगी के अधूरा माना जाता था.

इंडिया-पाकिस्तान के बीच दोस्ती को लेकर फ़राज़ काफ़ी बेचैन रहते थे. अहमद फ़राज़ ये तक कहा करते थे कि मैं हिंदुस्तान को अपना घर समझता हूँ, यहाँ पाकिस्तान से ज़्यादा मेरे चाहने वाले रहते हैं. तभी तो फ़राज़ ने दोनों मुल्कों में अमन और मोहब्बत को लेकर कहा था कि-

“गुज़र गए कई मौसम कई रूतें बदलीं उदास तुम भी हो यारों उदास हम भी हैं”

आज फराज़ की पैदाइश के मौके पर उनके लिखे उस शेर का जिक्र ना हो तो एक कमी सी लगेगी. जिसमें फराज़ समाज की उस तस्वीर को दिखाने में कामयाब हुए थे जिस समाज में उसी के दुशमन रहते हैं. वो दुशमन ऐसा कि उसे हर खूबसूरत चीज़ से बैर है. इस दुश्मन को रंगों से नफरत है, मौशिकी यानी गीतों से नफरत है. इस दुशमन को हर उस चीज़ से नफरत है जिसमें आजादी है, खुशी है. 

तुम अपने अक़ीदों (विश्वास) के नेज़े (भाला)
हर दिल में उतारे जाते हो 
हम लोग मोहब्बत वाले हैं 
तुम ख़ंजर क्यूँ लहराते हो 
इस शहर में नग़्मे (गीत )बहने दो 
बस्ती में हमें भी रहने दो 
हम पालनहार हैं फूलों के 
हम ख़ुश्बू के रखवाले हैं 
तुम किस का लहू (खून) पीने आए 
हम प्यार सिखाने वाले हैं 
इस शहर में फिर क्या देखोगे 
जब हर्फ़ (अक्षर) यहाँ मर जाएगा 
जब तेग़ (तलवार) पे लय (धून) कट जाएगी 
जब शेर सफ़र कर जाएगा 
जब क़त्ल हुआ सुर साज़ों (musical instruments) का 
जब काल पड़ा आवाज़ों का 
जब शहर खंडर बन जाएगा 
फिर किस पर संग उठाओगे 
अपने चेहरे आईनों में 
जब देखोगे डर जाओगे