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एक मुहिम से बदल रही है मलीहाबाद के इस गांव की महिलाओं की तकदीर, साक्षर होकर कर रही हैं अपने सपने पूरे

दरअसल गांवों में बच्चों को स्कूल तक लाने के लिए सरकार कई पहल कर रही है. इसके साथ ही स्वयंसेवी संस्थाएं भी इस दिशा में काम कर रही हैं. ऐसे में जब एक स्वयंसेवी संस्था ने इस गांव में देखा कि बच्चे पढ़ने नहीं जाते और उनके माता पिता भी इसमें कोई रुचि नहीं लेते तो उन्होंने गांव में बच्चों की मां, दादी, नानी जैसी परिवार की महिलाओं के लिए एक पाठशाला शुरू की.

गांवों में बच्चों को स्कूल तक लाने के लिए सरकार कई पहल कर रही है. गांवों में बच्चों को स्कूल तक लाने के लिए सरकार कई पहल कर रही है.
हाइलाइट्स
  • इस गांव में दोपहर के बाद पढ़ने पंचायत भवन जाती है महिलाएं

  • अनीता में है मायके से आई चिट्ठी पढ़ने की ललक

  • दादी-नानी की उम्र की महिलाओं को पढ़ना है पसंद

  • पढ़ाई की मदद से बदलाव लाने को हुईं हैं तैयार  

कहते हैं कि पढ़ने की कोई उम्र नहीं होती. पर ताउम्र जिन्होंने कभी स्कूल का मुंह न देखा हो,घर में भी कभी पढ़ाई न की हो, गांव के रूढ़िवादी माहौल में पली बढ़ी हों, अक्षर से ऐसी महिलाओं का परिचय कराना इतना आसान नहीं होता. आज हम आपको ऐसे ही एक पिछड़े गांव की अनोखी पाठशाला की कहानी बताने वाले हैं जहां शिक्षा का उजाला धीरे-धीरे फैल रहा है.

इस गांव में दोपहर के बाद पढ़ने पंचायत भवन जाती है महिलाएं 

मैंगो बेल्ट मलीहाबाद के इलाके में एक गांव ‘आंट; है. किसी भी पिछड़े इलाके के गांव की तरह आपको यहां भी कच्ची सड़कें, स्कूल न जाकर दिन-भर घर के बाहर घूमते और मवेशी चराते बच्चे दिखाई देंगे. लेकिन दोपहर के बाद से इस गांव में एक अनोखी बात दिखाई देती है. दोपहर के बाद इस गांव की सभी महिलाएं घर का काम-काज निपटाकर, बच्चों को खाना खिलाकर और पूरे घर को सहेजकर गांव में बने पंचायत भवन की ओर चल पड़ती हैं. पर यहां वो सिलाई-कढ़ाई सीखने के लिए नहीं या फिर किसी आयोजन के लिए नहीं आतीं, बल्कि वो हाथों में किताब लेकर यहां पढ़ने आती हैं. कई बार तो वो स्कूल से आए अपने छोटे बच्चों को भी साथ लेकर आती हैं.

अनीता में है मायके से आई चिट्ठी पढ़ने की ललक 

इस गांव में रहने वाली शांति के पति 6 साल पहले गुजर गए. शांति का इस गांव में कोई सहारा नहीं है और वह किसी तरह अपने तीन बच्चों को पढ़ा रही हैं. लेकिन खुद निरक्षर होने के कारण वह पढ़ाई में अपने बच्चों की मदद नहीं कर पा रही थी. इसलिए उन्होंने खुद भी पढ़ने का निर्णय लिया. शांति की बेटी मुस्कान खुद पांचवीं में पढ़ती है और मां को जब भी पढ़ाई में दिक्कत होती है तो वो उनकी मदद करती है. अनीता की स्थिति थोड़ी बेहतर है. एक बेटी की शादी हो गयी. बाकी तीन बच्चे पढ़ते हैं. एक बेटी मां के साथ पाठशाला आती है. अनीता कहती हैं कि बैंक का कामकाज खुद करना आना चाहिए. उनमें मायके से आई चिट्ठी को भी खुद पढ़ने की ललक है. बेटी को भी मां के साथ कॉपी किताब लेकर पढ़ने आना अच्छा लगता है.

दादी-नानी की उम्र की महिलाओं को पढ़ना है पसंद 

दरअसल गांवों में बच्चों को स्कूल तक लाने के लिए सरकार कई पहल कर रही है. इसके साथ ही स्वयंसेवी संस्थाएं भी इस दिशा में काम कर रही हैं. ऐसे में जब एक स्वयंसेवी संस्था ने इस गांव में देखा कि बच्चे पढ़ने नहीं जाते और उनके माता पिता भी इसमें कोई रुचि नहीं लेते तो उन्होंने गांव में बच्चों की मां, दादी, नानी जैसी परिवार की महिलाओं के लिए एक पाठशाला शुरू की. इसके बाद से ये महिलाएं सिर्फ़ 3 घंटे के लिए पढ़ने आने लगीं. यहां  इनको पढ़ाने वाली सोनम का कहना है, “पहले तो दादी नानी जैसी उम्र की महिलाएं संकोच और शर्म करती थीं कि इस उम्र में पढ़ेंगी तो लोग क्या कहेंगे. पर अब वो भी यहां आती हैं और उन्हें पढ़ाई इतनी अच्छी लगने लगी है कि रविवार को क्लास नहीं होने पर वो पूछती हैं कि बिटिया आज नहीं पढ़ाओगी?”

पढ़ाई की मदद से बदलाव लाने को हुईं हैं तैयार  

इन महिलाओं को पढ़ाने वाली संस्था ‘ज्ञानसेतु’ का कहना है कि इनको 6 महीने तक पढ़ाई कराकर National Open School से इनको कक्षा 3 का सर्टिफिकेट भी दिलाया जाएगा. आज अक्षर पहचानने से इन महिलाओं में आत्मविश्वास आया है. घरेलू हिंसा का उन्होंने विरोध करना सीखा है. अपने बच्चों को स्कूल भेजने के लिए वो ज़्यादा तत्पर हुई हैं. खुद पढ़कर महिलाएं अब वो बदलाव लाने के लिए तैयार हैं जिसकी बात हमेशा से होती रही है.