Empowering Differently Abled Children 
 Empowering Differently Abled Children साल 2007 में आयी फ़िल्म ‘तारे ज़मीन पर’ लोगों को खूब पसंद आयी थी. इस फिल्म के कारण बहुत से लोगों को डिस्लेक्सिया जैसे डिसऑर्डर के बारे में पता चला. फिल्म में जैसे आमिर के किरदार ने दर्शील की जिम्मेदारी ली, उसी तरह एक युवा दंपति ने असल जिंदगी में इसी तरह के बच्चों का जीवन संवारने का जिम्मा उठाया है.
यह युवा दंपति है शालू और अथर्व, जिन्होंने लखनऊ में एक अनोखे कैफ़े की शुरुआत की है. उनका कहना है कि दिव्यांग बच्चों की अपनी दुनिया होती है. ऐसे बच्चों के मन को समझ कर कोई उनके जीवन में भी रंग भर सकता है.
बच्चों के जीवन में भर रहे हैं रंग
लखनऊ के दृष्टि सामाजिक संस्थान के बच्चे सामान्य बच्चों से अलग हैं. लेकिन शारीरिक दिव्यांगता, नेत्रहीनता हो या ऑटिज़म और सेरिब्रल पाल्सी जैसी बीमारियां इनकी मुस्कान को नहीं रोक सकती हैं. शालू सिंह और अथर्व हर रोज सुबह इन बच्चों के लिए प्लानिंग करते और एक-एक बच्चे की ज़रूरत पर ध्यान देते हैं. 
वे हर रोज इन बच्चों के साथ संवाद करते हैं. और उनको प्रोत्साहित करने के लिए स्पेशल ट्रेनर्ज़ की मदद से बच्चों को इस दुनिया से रू-ब-रू कराते हैं. ज़्यादातर बच्चे इसी शेल्टर में अपना पूरा दिन बिताते हैं.
नई स्किल्स सीख रहे हैं बच्चे
शेल्टर की बच्ची मुस्कान सुन और बोल नहीं पाती हैं और सिर्फ़ साइन लैंग्वेज में बात करती हैं. पर वह पिज़्ज़ा बनाना जानती हैं. वहीं अंजली भी शारीरिक विकलांग है लेकिन वह भी चाय और बर्गर बनाने में काफ़ी रुचि ले रही है. ये बच्चे पास ही बने कैफ़े में पहुंचते हैं जहां उनको खेल खेल में काम की ट्रेनिंग दी जाती है. 
दरअसल, यह कैफ़े एक ऐसी प्रयोगशाला है जहां शालू और अथर्व इन बच्चों को ट्रेन कर रहे हैं.
कैसे हुई शुरुआत 
शालू बताती हैं कि उनकी सास स्वर्गीय नीता बहादुर के शुरू किए गए मानसिक मंदित और शारीरिक रूप से विकलांग बच्चों के केंद्र दृष्टि संस्थान में शालू और अथर्व ने ये महसूस किया कि बच्चों की देखभाल तो हो जाती है. लोग आते हैं और पर्व त्योहारों पर वहां समय भी बिताते हैं. पर इन बच्चों के भविष्य आख़िर होगा क्या? 
इसके लिए उन्होंने शुरू कर दिया एक ऐसा कैफे जिसमें बिना किसी बोझ के ये बच्चे लोगों से बातचीत करना सीख सकें. आज उनके सेंटर में 252 बच्चे हैं जो हर उम्र के हैं. इसमें 160 लड़कियां हैं. सभी को कैफे में ट्रेन किया जा रहा है. अथर्व बताते हैं कि यह काम आसान नहीं है. बच्चे कभी भी नाराज़ हो सकते हैं, कभी उनको कोई बात बुरी लग सकती है तो कभी उग्र भी हो सकते हैं.
ऐसे में, बच्चों को उनकी अपनी सुविधा और इच्छा के अनुसार कैफ़े में सीखने का मौक़ा दिया जाता है. क़रीब 32 साल पहले शुरू हुए इस होम और संस्था में हर बच्चा कुछ न कुछ सीखता है.