
बद्रीनाथ धाम में आज वामन द्वादशी के पावन अवसर पर माता मूर्ति महोत्सव धूमधाम से मनाया गया. भगवान बद्री विशाल अपनी माता मूर्ति से मिलने माणा गांव के समीप माता मूर्ति मंदिर पहुँचे. यह सतयुग से चली आ रही परंपरा माता-पुत्र के अटूट बंधन का प्रतीक है. माता मूर्ति महोत्सव पूरे हर्षोल्लास के साथ मनाया गया. सुबह भगवान बदरीविशाल की उत्सव मूर्ति श्री उद्धव जी की डोली माणा गांव के माता मूर्ति मंदिर की ओर रवाना हुई. सैकड़ों श्रद्धालु डोली यात्रा में इस माता-पुत्र मिलन के साक्षी बने.
सतयुग से चली आ रही परंपरा-
सुबह 9:30 बजे बाल भोग के बाद श्री उद्धव जी, जो भगवान बद्री विशाल के प्रतिनिधि हैं, गर्भगृह से बाहर आए. 9:30 बजे मंदिर के कपाट बंद किए गए और सेना के बैंड की मधुर धुनों, श्रद्धालुओं के नाचने के साथ डोली माणा गांव की ओर प्रस्थान की. सैकड़ों श्रद्धालुओं के जयकारों से बद्रीनाथ धाम गूंज उठा. माता मूर्ति महोत्सव सतयुग से चली आ रही परंपरा है. पौराणिक मान्यता के अनुसार, भगवान विष्णु ने माता मूर्ति और धर्मराज के पुत्र के रूप में नर-नारायण के रूप में जन्म लिया. बद्रिकाश्रम में तप कर उन्होंने राक्षस दुरदंभ का वध किया. मान्यता है कि यहाँ एक दिन की तपस्या एक हजार वर्ष के तप के बराबर है. वामन द्वादशी पर भगवान माता मूर्ति से मिलने माणा गांव जाते हैं, जहाँ माता उन्हें भोग अर्पित करती हैं.
नर-नारायण ने तपस्वी बनने का मांगा वरदान-
कथा के अनुसार, नर-नारायण ने माता मूर्ति से तपस्वी बनने का वरदान माँगा. माता ने वचन दिया कि वे वर्ष में एक बार उनसे मिलने आएँगे. तब से वामन द्वादशी पर यह मिलन होता है. माणा गांव की महिलाओं ने जौ की हरियाली भेंट कर डोली का स्वागत करती है. तो माना के इष्ट देव घनियाल एक दिन पूर्व बद्रीविशाल को बुलावा देने आते हैं, वही आज बद्रीविशाल का अद्भुत अभिषेक श्रृंगार माता के मंदिर मांता मूर्ति में हुआ, जहां अभिषेक के बाद मां मूर्ति की गोद में भगवान का दोपहर का भोग लगा, सुबह 10 बजे से दोपहर 3 बजे तक बद्रीनाथ मंदिर बंद रहा और भगवान ने माता की गोद में भोग और अभिषेक ग्रहण किया.
बद्रीनाथ से 3 किमी दूर है माता का मंदिर-
माता मूर्ति मंदिर, जो बद्रीनाथ से 3 किलोमीटर दूर अलकनंदा नदी के किनारे स्थित है, आज श्रद्धालुओं से गुलज़ार रहा भक्त इस धार्मिक आयोजन में शामिल हुए. पूजा और भोग के बाद डोली बदरीनाथ लौटी, जहाँ आरती के साथ उत्सव संपन्न हुआ. यह परंपरा माता-पुत्र के प्रेम के साथ-साथ सांस्कृतिक एकता को भी दर्शाती है. यह उत्सव भक्ति और परंपरा का अनूठा संगम है.
(कमल नयन सिलोड़ी की रिपोर्ट)
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