
ओडिशा के पुरी में जगन्नाथ रथयात्रा का शुभारंभ हो चुका है. एक बार फिर आस्था, भक्ति और रहस्यों से भारी रथयात्रा की गूंज पुरी की पावन धरती पर सुनाई देने लगी है. यह यात्रा केवल भगवान के दर्शन भर नहीं है, बल्कि एक ऐसा दिव्य अनुभव है, जहां विज्ञान भी श्रद्धा के आगे नतमस्तक हो जाता है.
भगवान जगन्नथ मंदिर के चमत्कार सिर्फ कहानियां नहीं, बल्कि सदियों से निभाई जा रही परंपरा है, जो आस्था को चमत्कार में बदल देती है. यह एक ऐसा मंदिर है, जो समेटे है आस्था के साथ रहस्यों का खजाना, जिसे जानकर आप हो जाएंगे हैरान तो आइए इस लेख के साथ चलें उसे यात्रा पर जहां हर कदम पर चमत्कार बसा है और हर परंपरा में कोई गहरा संदेश छुपा है.
1. भगवान श्रीकृष्ण के ह्रदय से जुड़ा दिव्य लट्ठा
भगवान श्री कृष्ण की जब पृथ्वी पर लीला पूरी हुई, तब उनका पार्थिव शरीर अग्नि को समर्पित किया गया लेकिन एक चमत्कार हुआ, बाकी शरीर तो अग्नि में विलीन हो गया, लेकिन उनका हृदय नहीं जला. जब ह्रदय को नदी प्रवाह किया गया, तब वह हृदय एक दिव्या लकड़ी के टुकड़े यानी लट्ठे में बदल गया.
वर्षों बाद, यह लट्ठा राजा इंद्रदयुम्न को मिला और उन्होंने उसे भगवान जगन्नाथ की मूर्ति के भीतर स्थापित किया. तभी से यह लट्ठा भगवान का हृदय माना जाता है, जो हर बार नई मूर्ति बनने पर भी वैसा का वैसा ही रह जाता है. हर 12 वर्षों में जब भगवान जगन्नाथ, बलभद्र और सुभद्रा की नई मूर्तियां बनाई जाती हैं. इस प्रक्रिया को 'नव कलेवर' कहते हैं. आपको बता दें इन नई मूर्तियों को अत्यंत गुप्त और पवित्र विधि से स्थापित किया जाता है. इस दौरान पुजारियों की आंखों पर पट्टी बंधी होती है. हाथ ढके होते हैं और वातावरण में एक अद्भुत ऊर्जा महसूस की जाती है. यह लट्ठा कोई साधारण लकड़ी नहीं यह विश्वास का प्रतीक है.
2. जब रानी की चिंता से अधूरी रह गईं मूर्तियां
सालों पहले जब राजा इंद्रदयुम्न को एक सपना आया, उस सपने में स्वयं भगवान श्रीकृष्ण ने उन्हें निर्देश दिया कि वह एक दिव्या लट्ठा समुद्र से निकालें और उससे भगवान जगन्नाथ, बलभद्र और सुभद्रा की मूर्तियां बनवाएं. राजा ने सपने को आदेश माना और उसी तरह का एक लट्ठा उन्हें समुद्र किनारे सचमुच मिला. वे समझ गए की यही भगवान का हृदय है. मूर्तियां बनवाने के लिए उन्होंने पूरे समर्पण से तैयारी शुरू की. इसी समय एक वृद्ध बढ़ई उनके पास आया और कहा, मैं इन मूर्तियों को बना सकता हूं, लेकिन मेरी एक शर्त है. मुझे 21 दिन तक एक बंद कमरे में अकेले काम करने दिया जाए. इस बीच कोई दरवाजा ना खोले, वरना मैं काम अधूरा छोड़ दूंगा.
राजा ने शर्त मान ली. अगले कुछ दिन तक कमरे से औजारों की आवाजें आती रहीं, जिससे भरोसा रहा कि काम चल रहा है. लेकिन 14वे दिन आवाजें बंद हो गईं, रानी गुंडिचा को चिंता हुई कि कहीं बूढ़े बढ़ई को कुछ हो ना गया हो? उन्होंने राजा से आग्रह किया कि दरवाजा खोलें. राजा ने रानी की बात मान ली और जैसे ही दरवाजा खोला अंदर की आवाज शांत थीं और वह वृद्ध कारीगर, जो वास्तव में भगवान विश्वकर्मा थे, अदृश्य हो चुके थे. कमरे के भीतर भगवान जगन्नाथ, बलभद्र और सुभद्रा की अधूरी मूर्तियां थी. भगवान जगन्नाथ और बलभद्र के हाथ छोटे थे और उनके पैर नहीं बने थे. सुभद्रा की मूर्ति में तो हाथ-पैर ही नहीं थे. राजा को अपनी गलती का गहरा पछतावा हुआ. लेकिन उन्होंने इसे भगवान की इच्छा माना और इन अधूरी मूर्तियों को ही मंदिर में स्थापित कर दिया. तब से लेकर आज तक भगवान जगन्नाथ, बलभद्र और सुभद्रा जी उसी रूप में पुरी के मंदिर में विराजमान हैं. ये मूर्तियां आज भी यह याद दिलाती हैं कि जब श्रद्धा में भाव होता है तो अधूरा भी संपूर्ण बन जाता है.
3. जगन्नाथ मंदिर की अनोखी रसोई
पुरी के जगन्नाथ मंदिर में सिर्फ भक्ति नहीं, बल्कि भोजन की सेवा भी एक चमत्कार की तरह होती है. यहां की रसोई को दुनिया की सबसे बड़ी मंदिर रसोई कहा जाता है. मंदिर में प्रवेश करने पर दाईं ओर आनंद बाजार और बाईं और यह विशाल रसोई स्थित है, जहां रोजाना हजारों लोगों के लिए खाना बनाया जाता है. यहां प्रसाद मिट्टी के सात बर्तनों को एक के ऊपर एक रखकर लकड़ी की आंच पर पकाया जाता है.
हैरानी की बात यह है कि जो बर्तन सबसे ऊपर होता है, वही सबसे पहले पकता है. यह विज्ञान के नियमों से परे एक रहस्य है. जिसे आज तक कोई पूरी तरह नहीं समझ पाया. हर दिन लगभग हजारों से अधिक भक्त इस पवित्र प्रसाद को ग्रहण करते हैं. त्योहारों पर यह संख्या लाखों तक पहुंच जाती है लेकिन खास बात यह है कि यहां कभी भी प्रसाद काम नहीं पड़ता और न ही बचता है. लोग इसे ईश्वर की कृपा मानते हैं. ऐसा लगता है जैसे भगवान खुद सुनिश्चित करते हों कि हर भक्त को उनका प्रसाद मिल ही जाए.
4. हवा के विपरीत दिशा में लहरता ध्वज
भगवान विष्णु (जगन्नाथ) जी जब पुरी में विश्राम कर रहे थे, तो समुद्र की ऊंची-ऊंची लहरों की आवाज़ उन्हें बार-बार परेशान कर रही थी. यह बात जब भगवान के प्रिय भक्त हनुमान जी को पता चली, तो वह बहुत चिंतित हुए. वह तुरंत समुद्र देवता के पास पहुंचे और प्रार्थना की कि कृपाया अपनी आवाज कम करें, ताकि भगवान जगन्नाथ को शांति मिल सके. समुद्र देव ने जवाब दिया, मैं अपनी लहरों की आवाज तो काम नहीं कर सकता क्योंकि यह आवाज हवा की दिशा से चलती है. लेकिन एक उपाय है, हवा को नियंत्रित करके. इसके बाद हनुमान जी सीधे पहुंचे अपने पिता पवन देव के पास.
पवन देव ने कहा, हवा को पूरी तरह रोकना मुश्किल है, लेकिन अगर तुम तेज गति से मंदिर के चारों ओर चक्र लगाओगे, तो एक विशेष वायु चक्र बन जाएगा. यह चक्र हवा को मंदिर के अंदर जाने से रोकेगा और लहरों की आवाज वहां नहीं पहुंचेगी. हनुमान जी ने वैसा ही किया. उन्होंने मंदिर की विपरीत दिशा में इतनी तेज परिक्रमा की. इससे एक अदृश्य वायु रक्षा कवच बन गया. इसी कारण मंदिर के भीतर समुद्र की लहरों की आवाज सुनाई नहीं देती और भगवान जगन्नाथ जी शांति से विश्राम कर पाते हैं. इसी वायु परिक्रमा का चमत्कार आज भी लोग देखते हैं. जगन्नाथ मंदिर के शिखर पर जो ध्वज लहराता है, वह हमेशा हवा की सामान्य दशा के विपरीत लहराता है. इसे सिर्फ चमत्कार नहीं बल्कि हनुमान जी की अनन्य भक्ति का प्रतीक माना जाता है.
5. बिना छाया वाला मंदिर
जगन्नाथ मंदिर की एक रहस्यमय बात यह है कि इस पर कभी कोई छाया नहीं पड़ती. चाहे दिन का कोई भी समय हो या सूरज किसी भी दिशा में हो, मंदिर की छाया जमीन पर नहीं दिखती. यह एक अद्भुत वास्तुशिल्प का नमूना है या चमत्कार आज तक यह एक रहस्य बना हुआ है.
6. मंदिर के ऊपर कुछ नहीं उड़ता
जगन्नाथ मंदिर के ऊपर न तो कोई पक्षी उड़ता है, न बैठता है, और न ही कोई विमान उस क्षेत्र के ऊपर से गुजरता है. यह भी एक रहस्य है जिसका अब तक कोई वैज्ञानिक कारण नहीं मिल पाया है. मंदिर के ऊपर एक विशाल नीलचक्र स्थित है, जिसका वजन करीब एक टन है. चमत्कारी बात यह है कि पुरी के किसी भी स्थान से देखने पर ऐसा लगता है कि चक्र सीधा आपकी ओर मुंह किए हुए है. इससे भी बड़ा रहस्य यह है कि 12वीं सदी में इतने भारी चक्र को इतनी ऊंचाई पर कैसे स्थापित किया गया होगा.
7. सोने की झाडू से रथयात्रा की शुरुआत
पुरी की भव्य जगन्नाथ रथयात्रा से पहले एक बेहद खास परंपरा निभाई जाती है. रथ के रास्ते को सोने के हत्थे वाली झाड़ू से साफ किया जाता है. यह झाड़ू कोई आम झाड़ू नहीं होती. इसे चलाने का अधिकार केवल राजघराने के वंशजों को ही होता है. यह परंपरा यह दिखाती है कि चाहे राजा ही क्यों न हो, भगवान के सामने वह भी सेवक होता है.
सोने से बनी यह झाड़ू शुभता, सम्मान और शुद्धता का प्रतीक मानी जाती है. माना जाता है कि इससे राजा के वंशज भगवान जगन्नाथ, बलभद्र और सुभद्रा के प्रति भक्ति आभार प्रकट करते हैं और यह दर्शाते हैं कि भगवान के स्वागत में वह अपनी तरफ से सबसे बेहतर चीज अर्पित कर रहे हैं. इस अनुष्ठान के जरिए यात्रा की शुरुआत पवित्रता और समर्पण के भाव से होती है, जो इसे और भी भाव और दिव्या बना देती है.
(ये स्टोरी पूजा कदम ने लिखी है. पूजा जीएनटी डिजिटल में बतौर इंटर्न काम करती हैं.)