
हमने हमेशा चांद को बस आसमान में चमकते देखा है- कविताओं में, प्रेम कहानियों में, और बच्चों की लोरियों में. लेकिन अब सवाल उठ रहा है: "चांद का मालिक कौन है?" और यकीन मानिए, यह सवाल सिर्फ रोमांटिक नहीं, बल्कि अरबों-खरबों डॉलर का है.
NASA ने हाल ही में एक न्यूक्लियर रिएक्टर लगाने की योजना तेज कर दी है, जो 2030 तक चांद पर बिजली पैदा करेगा. अमेरिका कह रहा है- "हम पहले होंगे." चीन ने जवाब दिया- "देख लेना, हम भी आ रहे हैं." रूस, जापान, भारत, प्राइवेट कंपनियां- सब इस रेस में हैं. और असली मसला यह है कि जब कोई चांद पर सबसे पहले स्थायी ठिकाना बना लेगा, तो वो सिर्फ वहां रहेगा नहीं, बल्कि नियम भी वही तय करेगा.
1967 का कानून कहता है- चांद सबका है
संयुक्त राष्ट्र की Outer Space Treaty कहती है कि चांद किसी का नहीं, पूरी मानवता का है. कोई भी देश, कंपनी या व्यक्ति इसे अपना दावा करके कब्जा नहीं कर सकता. सुनने में अच्छा लगता है, लेकिन हकीकत में यह Cold War के डर से बना नियम था- ताकि अमेरिका और सोवियत संघ अंतरिक्ष को परमाणु हथियारों का अड्डा न बना दें.
100 से ज्यादा देश इस पर हस्ताक्षर कर चुके हैं, लेकिन… तब के जमाने में न तो प्राइवेट स्पेस कंपनियां थीं, न ही चांद पर पानी और खनिजों का पता था. अब हालात बदल चुके हैं.
2015 में अमेरिका ने खेल बदल दिया
अमेरिका ने अपने नागरिकों और कंपनियों को अनुमति दे दी कि वो चांद से संसाधन निकाल सकते हैं, इस्तेमाल कर सकते हैं और बेच सकते हैं.
मतलब, अगर अमेरिकी कंपनी चांद से पानी, टाइटेनियम या हीलियम-3 लेकर आती है, तो वह उसे मार्केट में बेच सकती है.
बाकी देशों ने पहले इसका विरोध किया, लेकिन फिर लक्ज़मबर्ग, जापान, UAE और भारत जैसे देशों ने भी इसी तरह के कानून बना लिए.
नतीजा: अब चांद पर "मालिकाना हक" का खेल सीधा-साधा नहीं, बल्कि कानूनी और राजनीतिक दंगल बन चुका है.
चांद पर इतना लालच क्यों?
"पहले पहुंचो- पहले पाओ" का नियम
अंतरिक्ष कानून के एक्सपर्ट कहते हैं कि भले ही चांद का मालिकाना हक कानूनी रूप से किसी के पास नहीं होगा, लेकिन जो पहले वहां बेस बनाएगा, वही आसपास का इलाका कंट्रोल करेगा.
इसे “फर्स्ट मूवर एडवांटेज” कहते हैं. अंटार्कटिका की तरह हो सकता है, जहां देश "रिसर्च बेस" के नाम पर अपने इलाके घेर लेते हैं.
अगर अमेरिका पहले न्यूक्लियर पावर वाला बेस बना लेता है, तो आने वाले दशकों तक चांद के संसाधनों और रूल-मेकिंग में उसकी पकड़ रहेगी. चीन भी यही करना चाहता है.
प्राइवेट कंपनियां- नया सिरदर्द
अब सिर्फ देश नहीं, बल्कि प्राइवेट कंपनियां भी चांद पर उतर रही हैं. अमेरिका की Intuitive Machines, जापान का ispace, और भारत के आने वाले मिशन- सब इस दौड़ में हैं.
कुछ कंपनियां तो मानव की राख, DNA सैंपल और ब्रांडेड प्रोडक्ट तक चांद पर भेज रही हैं, जिससे ये सवाल उठ रहा है- क्या चांद अब विज्ञापन का नया बिलबोर्ड बन जाएगा?
NASA का Artemis Program और चीन-रूस का International Lunar Research Station- ये सिर्फ साइंस प्रोजेक्ट नहीं, बल्कि भू-राजनीतिक रणनीति हैं. अमेरिका के साथ 40+ देश Artemis Accords पर साइन कर चुके हैं. चीन इसमें नहीं है, और अपने पार्टनर्स के साथ अलग नियम बनाने की कोशिश कर रहा है.
अगर दोनों ब्लॉक चांद पर अलग-अलग नियम लेकर उतरते हैं, तो वहां भी वही होगा जो धरती पर हुआ- सीमाओं पर तनाव, संसाधनों की छीना-झपटी और "हम बनाम वो" की लड़ाई.
तो, चांद का मालिक कौन होगा?
कानून कहता है- कोई नहीं. वास्तविकता कहती है- जो पहले पहुंचेगा और मजबूत बेस बनाएगा, वही अनौपचारिक "मालिक" होगा. और यह मालिकाना हक आने वाले दशकों में अरबों डॉलर के संसाधनों, वैज्ञानिक खोजों और अंतरिक्ष की पॉलिटिक्स को कंट्रोल करेगा.
NASA का 2030 तक चांद पर 100 किलोवाट का न्यूक्लियर रिएक्टर लगाने का प्लान इस रेस का सबसे बड़ा दांव है. अगर यह सफल हुआ, तो अमेरिका सिर्फ चांद पर बसेगा नहीं, बल्कि वहां के भविष्य का "रूलबुक" भी लिखेगा. चीन, रूस और बाकी देश- सब इस होड़ में अपनी चाल चल रहे हैं.
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