
दिल्ली का ऐतिहासिक जयपुर पोलो ग्राउंड शनिवार को एक ज़बरदस्त जीत का गवाह बना. यहां खेले गए कोग्नीवेरा इंटरनेशनल पोलो कप के फ़ाइनल में, टीम इंडिया ने पोलो की दुनिया की सबसे मज़बूत टीमों में से एक टीम अर्जेंटीना को एक कांटे के मुकाबले में 10-9 से हरा दिया. पूरा मैच बेहद रोमांचक रहा, जहां गेंद की रफ़्तार और खिलाड़ियों की फुर्ती देखने लायक थी. यह मुकाबला सिर्फ़ एक खेल नहीं, बल्कि जुनून, ताक़त और बेहतरीन साझेदारी का प्रतीक बन गया.
सिमरन सिंह शेरगिल की कप्तानी में भारतीय टीम ने बेहतरीन प्रदर्शन किया. वहीं टीम के स्टार खिलाड़ी सवाई पद्मनाभ सिंह के सटीक स्ट्रोक्स और शानदार रणनीति ने अर्जेंटीना को टिकने नहीं दिया. कप्तान सिमरन शेरगिल ने जीत के बाद अपनी ख़ुशी ज़ाहिर करते हुए कहा, "अर्जेंटीना के खिलाफ़ जीतना हमारे लिए एक अविश्वसनीय क्षण है. हर खिलाड़ी ने अपना सौ फ़ीसदी दिया, और स्टैंड्स की एनर्जी ने हमें और भी आगे बढ़ाया. ये भारतीय पोलो के लिए गर्व का दिन है."

मैच के आयोजक कोग्नीवेरा आईटी सॉल्यूशंस के CEO और एमडी कमलेश शर्मा ने इस मौक़े पर कहा, "पोलो नज़ाकत, हिम्मत और वैश्विक दोस्ती को दर्शाता है. कोग्नीवेरा इंटरनेशनल पोलो कप की मेज़बानी करना और भारत को जीतते देखना सचमुच ख़ासतौर पर रहा. हमें ख़ुशी है कि ये खेल संस्कृतियों को जोड़ता है." शाम का समापन एक भव्य ट्रॉफी प्रस्तुति समारोह के साथ हुआ. यह जीत सिर्फ़ भारत की नहीं, बल्कि अंतर्राष्ट्रीय भाईचारे की भी जीत है.
इस शानदार मुक़ाबले को देखने के लिए हजारों लोग मौजूद थे. केंद्रीय पर्यटन मंत्री गजेन्द्र सिंह शेखावत मुख्य अतिथि के तौर पर शामिल हुए. उनके साथ केंद्रीय मंत्री किरण रिजिजू, सांसद नवीन जिंदल और मशहूर कवि डॉ. कुमार विश्वास समेत तमाम गणमान्य लोगों ने इस इवेंट की शोभा बढ़ाई. इस शानदार आयोजन ने वैश्विक पोलो सर्किट पर भारत की बढ़ती धाक को एक बार फिर मज़बूती दी है. पोलो के इस महाकुंभ में भारतीय टीम ने दिखा दिया कि वो किसी से कम नहीं.
पोलो से जुड़े कुछ दिलचस्प तथ्य
'राजाओं का खेल' कहलाने वाले इस खेल का इतिहास उतना ही शाही है जितना रोमांचक! पोलो की शुरुआत करीब 2,500 साल पहले फारस (आज का ईरान) में हुई थी. शुरुआत में यह सैनिकों के लिए घुड़सवारी और युद्ध अभ्यास का एक तरीका था. फारस से यह खेल एशिया, चीन और भारत तक फैल गया और राजघरानों का पसंदीदा शौक बन गया.
आधुनिक पोलो की शुरुआत का किस्सा
19वीं सदी में ब्रिटिश अधिकारियों ने मणिपुर में स्थानीय लोगों को 'सगोल कांगजई' नामक खेल खेलते देखा, और वहीं से आधुनिक पोलो का जन्म हुआ. कलकत्ता पोलो क्लब (1862) दुनिया का सबसे पुराना पोलो क्लब है जो आज भी सक्रिय है. भारतीय सेना ने आज़ादी के बाद इस खेल को जिंदा रखने में बड़ी भूमिका निभाई. महाराजा सवाई मानसिंह द्वितीय के नेतृत्व में जयपुर पोलो टीम 1930–40 के दशक में दुनिया की सबसे बेहतरीन टीमों में गिनी जाती थी.

खेल के नियम और रोमांचक बातें
पोलो में खिलाड़ी घोड़े पर 60 किलोमीटर प्रति घंटे की रफ्तार से खेलते हैं. मैच को "चक्का" नामक हिस्सों में बांटा जाता है, जो करीब 7–8 मिनट का होता है. पोलो कुछ ऐसे खेलों में से है जहां महिलाएं और पुरुष बराबरी से खेलते हैं. हर गोल के बाद दिशा बदलती है ताकि मैदान या हवा के असर से किसी टीम को फायदा न मिले.
क्या होते हैं पोलो पोनी यानी घोड़े
"पोनी" दरअसल असली घोड़े होते हैं. इनकी ऊंचाई आम तौर पर 14.2 से 16 हैंड होती है. खिलाड़ी एक मैच में 4 से 8 घोड़े तक बदलते हैं ताकि कोई थके नहीं. एक पोलो पोनी को पूरी तरह तैयार होने में 3 से 5 साल लगते हैं.

खेल की वैश्विक लोकप्रियता
अर्जेंटीना, भारत, ब्रिटेन, अमेरिका जैसे करीब 80 देश में इसका जलवा है. अर्जेंटीना को पोलो का बादशाह भी कहा जाता है. दुनिया के सर्वश्रेष्ठ खिलाड़ी और घोड़े यहीं से आते हैं. महाराजाओं से लेकर ब्रिटिश प्रिंस चार्ल्स और प्रिंस विलियम तक सभी को पोलो का जुनून रहा है.
मजेदार जानकारियां
पोलो ओलंपिक में भी खेला गया है. इसे 1900 से 1936 तक पांच बार ओलंपिक में शामिल किया गया. स्नो पोलो भी होता है. बर्फ से ढके मैदान पर, जैसे स्विट्ज़रलैंड के सेंट मॉरिट्ज़ में खेला जाता है. हाथी पोलो और ऊंट पोलो भी असली हैं! भारत, नेपाल और मध्य एशिया में इनका आयोजन किया जाता है.