दहेज और भारतीय फिल्में! 50 के दशक से आज की जमाने में कुप्रथा दिखाती कहानियां

फिल्म रक्षाबंधन टीवी सीरियल की तरह पारिवारिक है लेकिन बहुत कुछ दिखाने के चक्कर में अपने मूल विषय से भटक जाती है. फिर भी बॉक्स ऑफ़िस पर हिट देने वाले अक्षय कुमार ने बतौर निर्माता और अभिनेता. फ़िल्म के निर्देशक आनंद. एल. राय के साथ कोशिश की आज के जमाने में सदियों से चलती इस कुप्रथा को दिखाया जाए.

Rakshabandhan
अमित त्यागी
  • मुंबई,
  • 11 अगस्त 2022,
  • अपडेटेड 5:13 PM IST

कहते हैं सिनेमा समाज का आईना होता है. हमारे देश में आज भी दहेज की समस्या पूरी तरह से खत्म नहीं हुई है. इसी विषय को फिर से फ़िल्मी पर्दे पर लेकर आयी है फिल्म रक्षा बंधन. हाल ही में वेब सीरीज मेड इन हेवन और दावतएइश्क़ में भी दहेज के इसी मुद्दे को उठाया गया था. 

अक्षय कुमार और भूमि पेडनेकर के अभिनय से सजी से फिल्म दहेज की कुप्रथा को दिखाने की एक कोशिश है. अक्षय काफी दिनो से सामाजिक फिल्मों में काम कर रहे हैं जैसे टॉयलेट एक प्रेम कथा, पैडमैन, मिशन मंगल, OMG ओह माय गॉड, गोल्ड. यह फिल्म जो उन्होंने खुद बतौर निर्माता बनायी है, वो भी एक कोशिश है समाज के कड़वे सच को हल्के फुल्के अंदाज में दिखाने की कोशिश की है. 

फिल्म रक्षाबंधन टीवी सीरियल की तरह पारिवारिक है लेकिन बहुत कुछ दिखाने के चक्कर में अपने मूल विषय से भटक जाती है. फिर भी बॉक्स ऑफ़िस पर हिट देने वाले अक्षय कुमार ने बतौर निर्माता और अभिनेता. फ़िल्म के निर्देशक आनंद. एल. राय के साथ कोशिश की आज के जमाने में सदियों से चलती इस कुप्रथा को दिखाया जाए. क्योंकि आज भी भारत में दहेज की समस्या आम है. फिल्म में थोड़ा ज़बरदस्ती का ड्रामा ज़रूर है. लेकिन एक लम्बे समय के बाद एक पारिवारिक फिल्म सिनेमाघरों में आई है. टॉयलेट एक प्रेम कथा के बाद अक्षय और भूमि की जोड़ी वही अन्दाज़ में है. अक्षय की बहनों के किरदार में नई कलाकारों को ज्यादा मौका नहीं मिला और साथ में फिल्म का कमजोर संगीत गति धीमी कर देता है. लेकिन त्योहार के मौके पर और करोना काल की मार के बाद ओटीपी के जमाने में एक साफ सुथरी पारिवारिक फ़िल्म का आना अच्छी शुरुआत है.

50 के दशक में वी शांताराम ने अपनी फ़िल्मों से सामाजिक फिल्मों का दौर शुरू किया था. उसके बाद 60 और 70 में ढेर सारी सामाजिक फिल्में बनाई. वहीं बी. आर. चोपड़ा और सुनील दत्त ने 70 , 80 और 90 समकालीन विषयों पर कई फिल्में बनाई. 

फिल्म रक्षाबंधन की तरह दहेज की कुप्रथा पर बनी कुछ फिल्मों पर एक नज़र डालते हैं.

सौ दिन सास के (1980)
दहेज प्रथा पर 80s के दशक में निर्देशक विजय सदाना ने एक सुपर हिट फ़िल्म बनायी थी. जिसने सीरीयल्ज़ की दुनिया को पटकथा रच दी फ़िल्म ने ललिता पवार को एक ज़ालिम सास का तमगा दिया. फिल्म में आशा पारेख एक पीड़ित बहू बनी थी और रीना रॉय एक धाकड़ बहू जो दहेज की कुप्रथा के खिलाफ आवाज उठाती है. फिल्म दहेज की कुप्रथा पर बनी पारिवारिक हिट फिल्मी में से एक है. 

दहेज (1950)
1950 में बनी फिल्म दहेज को बनाया था वी शांताराम ने और फिल्म में पृथ्वीराज कपूर और जयश्री ने काम किया था. फिल्म ब्लैक और वाइट थी लेकिन उस वक्त फिल्म दर्शकों को बहुत पसंद आयी थी.

दूल्हा बिकता है (1982)
80 के दशक में राज बब्बर और अनिता राज की इस फ़िल्म को दर्शकों ने पसंद किया था. फिल्म रक्षाबंधन की तरह एक ऐसे भाई की कहानी को जो बहनों की शादी के लिए अपनी कुर्बानी दे देता है. फिल्म में निर्देशक अनवर पाशा ने दहेज के विषय को एक रोचक कहानी के माध्यम से दिखाया गया था.

दावत ए इश्क़ (2014)
सबको लगता है दहेज की समस्या खत्म हो गयी है. लेकिन आज भी देश के छोटे शहरों में ये आम है. कुछ इसी विषय पर यशराज फ़िल्म्ज़ ने 2014 ही में ये फिल्म बनाई थी. परिणीति चोपड़ा और आदित्य रॉय कपूर की ये फ़िल्म बॉक्स ऑफ़िस पर नहीं चली थी. लेकिन बाद में लोगों ने इस फ़िल्म को काफी पसंद किया जब ये टीवी और ओ टी टी पर आई.

ये आग कब बुझेगी (1991)
अभिनेता सुनील दत्त ने हमेशा सामाजिक विषयों पर फिल्में बनाई और ऐसी ही उनकी एक फिल्म थी ये आग कब बुझेगी. इस फिल्म में सुनील दत्त ने अभिनेत्री शीबा को लॉन्च किया था. जो उनकी दहेज पीड़ित बेटी बनी थी. कैसे शीबा को इसके ससुराल वाले दहेज के खातिर जला के मार डालते है. फ़िल्म की कहानी थी. फ़िल्म बॉक्स ऑफ़िस पर औसत रही थी, लेकिन शायद 90 के दशक में दर्शकों का मिजाज बदल चुका था और ये फिल्म लोग नहीं समझ पाए.

लज्जा 
निर्देशक राजकुमार संतोषी ने करीब 15 साल पहले मनीषा कोइराला और माधुरी दीक्षित के साथ लज्जा फिल्म बनाई थी. जहां पर अलग अलग नारी प्रधान मुद्दे उठाए गए थे . उसी में से एक था दहेज का मुद्दा जिसमें महिमा चौधरी एक दहेज पीड़ित लड़की बनी थी.

अंतर्द्वंद
इस फ़िल्म में भी दहेज के मुद्दे को उठाया गया की कैसे बिहार में एक दूल्हे का अपहरण हो जाता है. फिल्म में सब नए कलाकार थे लेकिन दहेज के मुद्दे को एक नए अंदाज में दिखाया गया था. 2009 में फिल्म को नेशनल अवार्ड से भी सम्मानित किया गया था.


 

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