Kargil Vijay Diwas Exclusive: कारगिल युद्ध के समय में देशवासियों ने खून से लिखी थी सैनिकों को अपनी प्यार भरी चिट्ठियां, वॉर हीरो कैप्टन अखिलेश सक्सेना ने बताए उस समय के हालात 

Kargil Vijay Diwas: 1999 में कारगिल की पहाड़ियों पर पाकिस्तानी घुसपैठियों ने कब्जा जमा लिया था. इन्हे खदेड़ने के लिए भारतीय सेना ने ऑपरेशन विजय चलाया था. ये ऑपरेशन 8 मई से शुरू होकर 26 जुलाई को खत्म हुआ था. जिसमें देश के कई सैनिक शहीद हुए थे. इस साल कारगिल विजय दिवस की 23वीं वर्षगांठ मनाई जा रही है. इस मौके पर GNT डिजिटल ने कारग‍िल वॉर हीरो कैप्टन अखिलेश सक्सेना से बात की.

Captain Akhilesh Saxena
अपूर्वा सिंह
  • नई दिल्ली,
  • 26 जुलाई 2022,
  • अपडेटेड 11:42 AM IST
  • शादी हुई और  उसके बाद ही आ गया युद्ध में जाने का बुलावा 
  • देश भर से आए थे सैनिकों को खत, खून से लिखी थी लोगों ने चिट्ठियां 
  • फौज को एक सैनिक के अंदर से कभी नहीं निकाल सकते 

कारगिल की हजारों फीट ऊंची बर्फीली पहाड़ियां… ऊपर से दुश्मन की बरसती गोलियां…सीधी चढ़ाई...और…दिलों में तिरंगा फहराने का जोश… 1999 में हुए भारत और पाकिस्तान के कारगिल युद्ध को आज 23 साल हो चुके हैं, लेकिन सेवानिवृत्त कैप्टन अखिलेश सक्सेना के मन-मस्तिष्क में कारगिल युद्ध की यादें अब भी ताजा हैं. युद्ध में उनके साथियों के बलिदान को सोचकर उनकी आंखें अभी भी डबडबा जाती हैं. 

कैप्टन अखिलेश सक्सेना कारगिल युद्ध के दौरान राजपुताना राइफल्स से जुड़े थे. उन्होंने ऑपरेशन विजय के तहत जवानों की एक टोली को लीड किया था. उनके साथ जवानों ने तोलोलिंग, द हंप और थ्री पिम्पल्स हाइट्स पर सफलतापूर्वक कब्जा किया था. हालांकि, युद्ध के दौरान, कैप्टन अखिलेश दुश्मन की गोलियों से बुरी तरह घायल हो गए थे और लगभग एक साल तक दिल्ली कैंट के बेस अस्पताल में भर्ती रहे थे.

कारगिल विजय दिवस के मौके पर GNT डिजिटल ने रिटायर्ड कैप्टन अखिलेश सक्सेना से बात की. उन्होंने बताया कि वे बचपन से ही आर्मी की यूनिफॉर्म पहनना चाहते थे और बस तभी से इसकी शुरुआत हो गई थी. वे बताते हैं कि स्कूल के बाद उनका एडमिशन दिल्ली कॉलेज ऑफ आर्ट्स में हो गया था. लेकिन इस दौरान वे नेशनल डिफेन्स अकडेमी (NDA) के लिए भी तैयारी कर रहे थे और उसमें वे पास हो गए थे. 

शादी हुई और  उसके बाद ही आ गया युद्ध में जाने का बुलावा 

कैप्टन अखिलेश अपने एनडीए के पलों को याद करते हुए कहते हैं, “एनडीए आपकी 3 साल की कड़ी मेहनत होती है, इस दौरान आपके ऐसे दोस्त बनते हैं जो जिंदगी भर आपके साथ रहते हैं. मैं 1995 से 1999 तक फ़िरोजपुर में पोस्टेड था और तभी ये खबर आने लगी थी कि बॉर्डर पर कुछ गड़बड़ हो रही है. उसी समय 1999 फरवरी में मेरी शादी हुई थी. मैं और मेरी वाइफ घर सेट करने की तैयारी कर ही रहे थे तभी कारगिल युद्ध की खबरें आने लगी और मेरी पोस्टिंग श्रीनगर, जम्मू और कश्मीर में हो गई.”

वे आगे कहते हैं कि जब हम इंडियन मिलिट्री एकेडमी (IMA) से पासआउट होते हैं तब हम तीन शपथ लेते हैं कि मेरे लिए मेरे देश की रक्षा सबसे पहले है, उसके बाद आएंगे मेरे कामरेड्स, जवान और साथी उनकी रक्षा करना और फिर सबसे आखिर में आते हैं हम या हमारे परिवार. और जब हम यूनिफॉर्म पहनते हैं तो हम ये शपथ लेते हैं कि हम अपने तिरंगे को कभी झुकने नहीं देंगे और इसे ऊपर रखने के लिए जो भी बलिदान देना होगा वो हम देंगे.”

कारगिल युद्ध में जाने की बात जब कैप्टन अखिलेश को पता चली तो उस पल को याद करते हुए वे कहते हैं, “मुझे ऐसा लगा था जैसे आप लंबे समय से किसी चीज़ का इंतज़ार कर रहे हों और वो एकदम से मिल जाए तो जो ख़ुशी होती है, कुछ वैसी ही मुझे उस वक़्त हुई जब मुझे पता चला कि मुझे जम्मू कश्मीर जाना है. हालांकि, मेरी तभी शादी हुई थी तो तब मुझे थोड़ा ये हुआ कि अभी मेरी वाइफ आर्मी के माहौल में सेटल भी नहीं हो पाई है, तब मैंने उनसे बात की. शुरू में वो 1-2 घंटे डाउन हुई लेकिन फिर उन्होंने कहा कि मैं इस सफर में आपके साथ हूं, तो आप अपनी ड्यूटी पूरी करिए.”

कैसे थे उस वक्त कारगिल के हालात ?

कारगिल के हालात के बारे में कैप्टन अखिलेश बताते हैं, “कारगिल की पहाड़ियां और द्रास की पहाड़ियां, ये एक सड़क है जो श्रीनगर से लेह लद्दाख तक जाती है जिसे एनएच 1 के नाम से जाना जाता है. इस एनएच 1 के साथ-साथ जो पहाड़ियां हैं, ये बहुत ऊंची पहाड़ी हैं, जो बिलकुल सीधी चढ़ाई है. यहां पर कोई भी पेड़ पौधे आपका शेल्टर नहीं है. अगर आप ऊपर चढ़ेंगे तो आपके दुश्मन आपको ऊपर से आसानी से देख सकते हैं. और वहां का तापमान तो माइनस 40 डिग्री तक पहुंच जाता है जहां चढ़ना तो दूर की बात है वहां सांस लेने में भी आपको परेशानी होने लगती है. वहां पर इतनी बर्फ और ठंडा हो जाता है कि वहां जवानों की सप्लाई बस हेलीकाप्टर से ही जा सकती है. 1999 के समय में भारत और पाकिस्तान दोनों ही आर्थिक रूप से ज्यादा सक्षम नहीं थे. और तब इसीलिए एक अलिखित समझौता हुआ था कि सर्दियों के समय में दोनों देशों में से कोई भी ऊपर के तरफ नहीं रहेगा दोनों नीचे आ जाएंगे और जब गर्मियां शुरू होंगी तो फिर से दोनों आर्मी ऊपर चली जाएंगी."

वे आगे कहते हैं, "ये तब विंटर वैकेटिड पोस्ट कहलाती थीं. तो 1998 में जब भारत ने अपने तरफ की पोस्ट खाली कर दी तब पाकिस्तान ने उन्होंने ये साजिश शुरू की. उन्होंने धीरे धीरे अपने हजारों सैनिकों को ऊपर चढ़ाना शुरू कर दिया. और एक दो महीने के अंदर उन्होंने सारी चोटियों पर कब्जा जमा लिया. तो जब भारतीय आर्मी ने दोबारा ऊपर चढ़ना शुरू किया तब पता चला कि सारी पोस्ट तो पाकिस्तान ने कैप्चर कर ली हैं और दुश्मन ऊपर बैठा हुआ है. उन्होंने पूरे रास्ते में माइंस लगा दी थीं और वो बंकर के नीचे छिपे हुए थे. जब हमने अपना एनालिसिस किया था तब हमारे जीतने के चांस 2 प्रतिशत भी नहीं थे.”

देश भर से आए थे सैनिकों को खत, खून से लिखी थी लोगों ने चिट्ठियां 

कैप्टन अखिलेश कहते हैं कि किसी भी जंग में सैनिकों का हौसला बढ़ाना सबसे जरूरी होता है. इसके लिए भारतीय अफसरों ने भी तरकीबें निकाली. वे कहते हैं, “तोलोलिंग के ऊपर कई अटैक हुए और शुरुआत में हमें उनमें कोई सफलता नहीं मिली. क्योंकि दुश्मन ऊपर बैठा हुआ था. हम जब ऊपर गए तब हमने सोचा कि हम अपने जवानों का हौसला किस तरह बढ़ाएं एक ऐसे सफर में जाने के लिए जहां से जिन्दा आने के चांस बहुत कम हैं. पहला हमने ये किया कि हमने राजपूतों के ट्रेडिशन को याद किया. उसमें ये होता है कि वे अपने सिर पर केसरिया बाना बांधते थे जब वे ऐसी लड़ाई में जाते थे जो बहुत मुश्किल होती थी. इसक मतलब होता है कि या तो हम जीतेंगे या वापिस नहीं लौटेंगे. तो हम मरने के लिए तैयार थे.”

वे आगे कहते हैं कि दूसरा तरीका हमने ये किया कि अपने जवानों को पीछे करके हम ऑफिसर्स आगे आ गए. अक्सर ऐसा होता है कि ऑफिसर बीच में रहते हैं. लेकिन इस लड़ाई में सभी ऑफिसर्स ने आगे से लीड किया कि पहली गोली आए तो हमें लगेगी. तो इस युद्ध में बहुत सारे ऑफिसर्स को चोट आई थी और शहीद हुए. फिर चाहे वो कैप्टेन विक्रम बत्रा हों, विजयंत थापड़ साहब हों, मेजर आचार्य हों सभी लोग आगे से लीड कर रहे थे.”

आगे कैप्टन अखिलेश बताते हैं कि उन्होंने जवानों को  देशभर से आई लोगों की चिट्ठियां पढ़ने के लिए कहा. वे बताते हैं, “तीसरा जो काम हमने किया वो ये कि हमलोग नीचे बेस में बैठे हुए थे. अचानक मैंने देखा कि पास में एक बैग रखा हुआ है. जिसमें भारतभर के लोगों ने अलग अलग चीज़ें भेजी थीं, जिसमें राखी, खत, फूल सबकुछ थे. मैंने अपने सारे जवानों को बुलाया और उन्हें पढ़वाया. तो जो पहला खत था वो किसी ग्रेजुएशन कर रही लड़की ने लिखा था कि मेरा कोई भाई नहीं है, मैं आपको राखी भेज रही हूं, आप ही लोग मेरे भाई हो और इस देश की इज्जत आप लोगों के हाथ में है. ये हमरे लिए बहुत भावुक कर देने वाला पल था. इसके बाद जब दूसरा खत हमने खोला तो वो किसी युवक ने खून से लिखा  था, जिसमें उसने लिखा था कि मैं भी देश के लिए कुछ करना चाहता था. लेकिन मैं आर्मी ज्वाइन नहीं कर पाया. लेकिन मैं जहां भी रहूंगा अपने देश के लिए जो कुछ कर सकता हूं करूंगा. हमें अपनी फ़ौज पर भरोसा है.एक और खत में हमें एक बूढ़ी मां ने लिखा था जिसमें उन्होंने कहा था कि तुमलोग मेरे बेटे जैसे हो और मैं अपने बेटों को केवल आर्शीवाद दे सकती हूं. पूरे देश का साथ हमारे साथ था. लड़ाई में इन छोटी छोटी चीज़ों की बड़ी भूमिका होती है."

तोलोलिंग पर झंडा फहराया और पाकिस्तानी हलवा खाकर मनाया जीत का जश्न 

कैप्टन अखिलेश कहते हैं कि जब हम तोलोलिंग पर पहुंचे तो मेरे कुछ साथी पहले ही वीरगति को प्राप्त हो चुके थे, कुछ थे जो घायल हो गए थे, कुछ को गोलियां लगी थीं, हम 2 दिन से भूखे-प्यासे लड़ रहे थे. हम जब ऊपर जा रहे थे तब हमने न खाना लिया था न पानी हमने केवल गोलियां और बारूद लिए थे. लेकिन वो तिरंगा उस छोटी पर पहुंचना उसके सामने कोई भी बलिदान कम था. और सभी में इतना जोश था कि लोग गोलियां लगे होने के बाद भी भारत माता कि जय चिल्ला रहे थे. मुझे ऐसा लगता है मैं कुछ भी करूं अपनी जिंदगी में लेकिन वो मेरी लाइफ का सबसे बड़ा पल था और रहेगा.

कैप्टन अखिलेश बताते हैं कि जब भारतीय सैनिकों ने तोलोलिंग पर झंडा फहराया तो पर्वत की चोटी पर बैठे पाकिस्तानी लगातार बमबारी और गोलीबारी करने लगे. कैप्टन अखिलेश कहते हैं, “जब हमने तोलोलिंग पर झंडा फहराया तो पाकिस्तान बौखला उठा था, तब उन्होंने हमारे ऊपर इतनी गोलीबारी की कि जो यूनिट हमारे लिए खाना लेकर आ रही थी वो नीचे ही रुक गई. तब हमें समझ नहीं आया था हम क्या करें. तब हमने सोचा कि दुश्मन यहां तीन महीने से बैठे हैं तो उनका किचन भी यहीं होगा. हमने उसे ढूंढा. वहां हमें एक छोटा सा स्ट्रक्चर दिखाई दिया और हमने अनुमान लगा लिया कि यही दुश्मनों का किचन होगा. हमने अपने पीछे बैग बांधे और भारत माता कि जय कहते हुए हमने भागना शुरू कर दिया. उस किचन में जब हम पहुंचे तो हमें पता लगा कि दुश्मन अपनी जीत को लेकर इतने आत्मविश्वास से भरे हुए थे कि उन्होंने जश्न की पूरी तैयारी कर रखी थी. वहां हलवा, बिरयानी, ड्राई फ्रूट्स रखे हुए थे. हमने वो सब भरे और अपने जवानों को दिए. और ऐसे हमने अपनी जीत का जश्न पाकिस्तान के हलवे से मनाया.”

फौज को एक सैनिक के अंदर से कभी नहीं निकाल सकते 

युद्ध में बुरी तरह घायल होने की वजह से कैप्टन अखिलेश समय से पहले ही रिटायर हो गए थे. युद्ध की 23वीं सालगिरह के मौके पर उस समय को याद करते हुए कहते हैं, “जब मेरे हाथ में गोली लगी तो मैंने जवानों को नहीं बताया क्योंकि इससे उनका हौसला कम हो सकता था. एक समय आया जब में बेहोश होने लगा तब मैंने कहा कि मुझे मेरे देश के लिए जिन्दा रहना है. और मैंने उस जगह से नीचे उतरना शुरू किया. मुझे नीचे आने में 5 से 6 घंटे लगे. तब मैंने हॉस्पिटल बेड से ही अपनी पढ़ाई पूरी की.”

वे आगे कहते हैं, “कहते हैं कि आप फ़ौज को कभी किसी सैनिक से बाहर नहीं निकाल सकते हैं. मुझे लगता है कि अभी भी एक फौजी के रूप में मेरी जिम्मेदारियां खत्म नहीं हुई हैं. मुझे आज भी  लगता है कि मेरी जिम्मेदारी है कि इस देश के लोगों को बताना कि सैनिकों और देश की सेना ने कितने बलिदान दिए हैं. आजादी हवा की तरह होती है जिसे हम तबतक जरूरी नहीं समझते जब तक वो हमें मिलती रहती है. हमें उसकी वैल्यू तब पता चलती है जब वो हमारे पास नहीं होती. अगर आप अपने सैनिकों की ताकत बनना चाहते हैं तो जो भी आप काम कर रहे हैं उसे ईमानदारी से करें. जय हिंद!”

ये कहानी बस इसलिए ताकि सभी को इतना याद रहे कि एक साथी और भी था!!!!


 

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