मालाड के सैनी परिवार के लिए 30 जून का दिन इमोश्नस से भरा रहा. उनकी दूसरी बेटी का जन्म सिर्फ 25 हफ्ते में हुआ. इससे पहले उनकी पहली बेटी भी इसी सप्ताह में जन्मी थी जिसका वज़न केवल 550 ग्राम था. इसलिए परिवार को लगा कि वे इस स्थिति को समझ चुके हैं. लेकिन इस बार हालात और ज्यादा चुनौतियों वाले थे. इस बार हुए नवजात का वज़न केवल मात्र 350 ग्राम था. माना जा रहा है कि यह भारत में जीवित रहने वाली सबसे छोटी शिशुओं में से एक हो सकती है.
एक हथेली से भी छोटी योद्धा
शिशु का जन्म सांताक्रूज़ स्थित सुर्या अस्पताल में हुआ, जहां डॉक्टरों ने तुरंत उसकी जान बचाने की कोशिशें शुरू कर दीं. नवजात विशेषज्ञ डॉ. नंदकिशोर काबरा बताते हैं कि उसका वजन काफी ज्यादा कम था. वह एक वयस्क की हथेली में समा जाती थी. इसलिए हमने तुरंत इंट्यूबेशन किया और फेफड़ों को सहारा देने के लिए सरफैक्टेंट दिया.
वैज्ञानिक प्रगति के चलते आज 500–600 ग्राम वज़न वाले समय से पहले जन्मे शिशुओं में 60% से ज्यादा बचने की संभावना होती है. लेकिन 350 ग्राम की बच्ची, जिसे डॉक्टर “नैनो प्रीमी” कह रहे हैं, के लिए यह संभावना बेहद कम मानी जाती है.
चार महीनों तक चली रोज़ाना जंग
इसके बाद शुरू हुआ 124 दिनों का कठिन सफ़र, NICU के अंदर हर दिन एक नई परीक्षा का. इस दौरान बच्ची ने कई गंभीर समस्याओं से लड़ाई लड़ी. जिसमें रेस्पिरेटरी डिस्ट्रेस सिंड्रोम, ब्रोंकोपल्मोनरी डिसप्लेसिया, वेंलेटर-एसोसिएटेड निमोनिया, एनीमिया, साइटोमेगालोवायरस संक्रमण, रेटिनोपैथी ऑफ प्रीमैच्योरिटी, हड्डियों के विकास में दिक्कत, ब्लड ट्रांसफ़्यूज़न और इंसुलिन सपोर्ट की ज़रूरत, पोटैशियम असंतुलन की लगातार निगरानी शामिल थी.
डॉ. हरी बालासुब्रमण्यन कहते हैं कि हर दिन उसके लिए लड़ाई थी. उन्नत वेंटिलेशन, संक्रमण नियंत्रण, शुगर और न्यूरोलॉजिकल मॉनिटरिंग, सब कुछ किया गया. उसका जीवित रहना किसी चमत्कार से कम नहीं.
भारत की सबसे हल्की सर्वाइवर!
लंबे संघर्ष के बाद 1 नवंबर को बच्ची को स्वस्थ और स्थिर अवस्था में डिस्चार्ज किया गया. उस समय उसका वज़न केवल 1.8 किलोग्राम, लंबाई 41.5 सेमी, सिर का सरकमफ्रेंस 29 सेमी था. उसका न्यूरोलॉजिकल रूप से सामान्य विकास था. डॉ. काबरा ने बताया कि सभी जांचें संतोषजनक रहीं. सुर्या हॉस्पिटल के चेयरमैन डॉ. भूपेंद्र अवस्थी के अनुसार यह भारत में अब तक की सबसे कम वज़न वाली जीवित शिशु है.