Kanwar Yatra 2025: सबसे पहले किसने की थी कांवड़ यात्रा... इसका प्रभु राम और भगवान परशुराम से क्या है संबंध... जानें कंधे पर ही क्यों रखा जाता है कांवड़

Kanwar Yatra History: कांवड़ यात्रा के दौरान शिवभक्त गंगा और अन्य पवित्र नदियों से जल कावंड़ में उठाकर शिवलिंग पर अर्पित करते हैं. आइए जानते हैं सबसे पहले किसने कांवड़ यात्रा की थी और कंधे पर ही कांवड़ को क्यों रखा जाता है?

Kanwar Yatra 2025
मिथिलेश कुमार सिंह
  • नई दिल्ली,
  • 09 जुलाई 2025,
  • अपडेटेड 5:49 PM IST
  • इस साल 11 जुलाई शुरू हो रही कांवड़ यात्रा
  • शिवभक्त गंगाजल लेकर शिवलिंग पर करेंगे जलाभिषेक

महादेव का सबसे प्रिय महीना सावन 11 जुलाई 2025 से शुरू हो रहा है और इसी दिन से कांवड़ यात्रा भी शुरू हो जाएगी. कांवड़ यात्रा के दौरान शिवभक्त गंगा और अन्य पवित्र नदियों से जल कावंड़ में उठाकर शिवलिंग पर अर्पित करते हैं. ऐसी धार्मिक मान्यता है कि कांवड़ यात्रा करने वाले कांवड़िए की सभी मनोकामनाएं भोलेनाथ पूरी कर देते हैं. आइए जानते हैं सबसे पहले किसने कांवड़ यात्रा की थी और कंधे पर ही कांवड़ को क्यों रखा जाता है?

सबसे पहले किसने की थी कांवड़ यात्रा
सबसे पहले किसने की थी कांवड़ यात्रा इसको लेकर विद्वानों में एकमत नहीं है. अलग-अलग क्षेत्रों में अलग-अलग मान्यताएं हैं. कुछ विद्वान मानते हैं कि भगवान परशुराम ने सबसे पहले कांवड़ यात्रा की थी. ऐसी मान्यता है कि परशुराम जी ने गढ़मुक्तेश्वर से गांगा जी का पवित्र जल लाकर यूपी के बागपत स्थित पुरा महादेव पर चढ़ाया था. उसी समय से लाखों शिवभक्त गढ़मुक्तेश्वर से जल लाकर पुरा महादेव का जलाभिषेक करते हैं.

भगवान श्रीराम 
कुछ धार्मिक मान्यताओं के अनुसार प्रभु राम को पहला कांवड़िया माना जाता है. भगवान राम ने बिहार के सुलतानगंज से गंगाजल भरकर बैद्यनाथ धाम में शिवलिंग का जलाभिषेक किया था.

श्रवण कुमार
कुछ विद्वान श्रवण कुमार का पहला कांवड़िया मानते हैं. इनका मानना है कि श्रवण कुमार त्रेतायुग में अपने अंधे माता-पिता को कांवड़ में बैठाकर हरिद्वार लाए थे और उन्हें गंगा स्नान कराया था. इतना ही नहीं वापसी में वे अपने साथ गंगाजल भी लेकर गए थे. 

रावण
पुराणों में बताया गया है कि कांवड़ यात्रा की पंरपरा समुद्र मंथन से जुडी है. देवताओं और दानवों ने जब अमृत के लिए समुद्र मंथन किया था. इस दौरान समुद्र से विष भी निकला था. इस विष को भोलेनाथ ने ग्रहण किया था. इसके कारण भगवान शंकर का कंठ नीला हो गया था. इसी कारण उनका नाम नीलकंठ पड़ गया. भगवान शिव का परमभक्त रावण ने महादेव को विष के नकारात्मक प्रभावों से मुक्त कराने के लिए कांवड़ से जलभरकर पुरा महादेव स्थित शिव मंदिर में जलाभिषेक किया था. 

देवतागण 
कुछ धार्मिक मान्यताओं के मुताबिक समुद्र मंथन से निकले विष को भगवान शंकर ने ग्रहण किया था. हलाहल के प्रभावों को दूर करने के लिए देवताओं ने गंगा सहित अन्य नदियों का जल लाकर भोलेनाथ पर अर्पित किया था. कई विद्वान बताते हैं कि कांवड़ यात्रा का शुभारंभ यहीं से हुआ है. 

कंधे पर ही क्यों रखा जाता है कांवड़
आपने देखा होगा कांवड़िए कांवड़ को हमेशा अपने कंधे पर ही रखते है. वे कभी भी कांवड़ को जमीन पर नहीं रखते हैं. आइए जानते हैं कांवड़ को कंधे पर रखने का महत्व क्या है? धार्मिक मान्यताओं के अनुसार प्रभु श्रीराम ने अपने पिता दशरथ की मोक्ष के लिए पहली बार कांवड़ यात्रा की थी. भगवान श्रीराम ने कांवड़ में गंगाजल लेकर अपने कंधे पर उठाया था. ऐसी मान्यता है कि तभी श्रद्धालु अपने कंधे पर ही कांवड़ लेकर चलते हैं. श्रवण कुमार ने अपने अंधे माता-पिता को कांवड़ में बैठाकर अपने कंधे पर उठाकर तीर्थयात्रा कराई थी. 

कंधे पर कांवड़ को उठाना श्रवण कुमार की तरह सेवा और समर्पण की भावना को दिखाता है. ऐसे में कांवड़िए अपने कंधे पर ही कांवड़ को उठाते हैं. शिवभक्त अपने कंधे पर कांवड़ उठाकर भेलेनाथ के प्रति अपनी आस्था और भक्ति को दिखाते हैं. कंधे पर भार को उठाना अहंकार के त्याग का प्रतीक है. कावंड़िया जब अपने कंधे पर कांवड़ लेकर शिवधाम के लिए चलता है तो  वह अपनी व्यक्तिगत पहचान और अहंकार को छोड़ स्वयं को महादेव को समर्पित कर देता है. ऐसी धार्मिक मान्यताएं हैं कि कंधे पर कांवड़ रखकर जल ले जाने से शिवभक्तों के सभी पाप नष्ट हो जाते हैं और उन्हें मोक्ष की प्राप्ति होती है. कांवड़ को कंधे पर रखना भगवान शिव के प्रति समर्पण और विश्वास को दिखाता है. 


 

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