विराट कोहली ने जब अपना अपना टेस्ट करियर शुरू किया था तब उनकी उम्र करीब 22 साल थी. कई क्रिकेट पंडितों का मानना था कि वह टेस्ट टीम में शामिल होने के लायक नहीं. जब कोहली ने इस फॉर्मैट को अलविदा कहा तो उनकी उम्र 36 साल थी. अब हर किसी की ज़बान पर एक ही बात है- अभी तो जाने का समय नहीं हुआ था.
कोहली का करियर ऐसा ही रहा है. उन्होंने अपने आलोचकों को इतना ग़लत साबित किया कि वे उनके प्रशंसक बन गए. कोई अगर इस टेस्ट करियर पर सरसरी नज़र डाले तो कहेगा कि यह बहुत कामिल सफर है. कोहली के करियर के आख़िरी हिस्से पर तनक़ीदी निगाह डालने वाले यह भी कह सकते हैं कि कोहली एक असफल टेस्ट क्रिकेटर हैं. लेकिन जिन्होंने कोहली का यह सफर क़रीब से देखा है, वे जानते हैं कि दरअसल यह एक महाकाव्य है जिसे अधूरा छोड़ दिया गया है.
इसकी वजह यह है कि जब 20 जून 2011 को कोहली का टेस्ट करियर शुरू हुआ तो उन्हें उनकी लाजवाब बल्लेबाज़ी से ज़्यादा उनके उद्दंड बर्ताव के लिए जाना जाता था. अपने पहले टेस्ट में गेंद से आग उगलते हुए केमार रोच को फ्लाइंग किस देने वाले कोहली ने यह साबित कर दिया था कि वह किसी का उधार रखने नहीं आए हैं.
कोहली का असली इम्तिहान इसी साल दिसंबर में शुरू हुआ. भारत को चार मैचों की टेस्ट सीरीज के लिए ऑस्ट्रेलिया का दौरा करना था. कोहली ने सीरीज के चौथे और आखिरी टेस्ट मैच में शतक जड़ा, लेकिन उससे दो मैच पहले सिडनी में वह हाथ का एक इशारा कर सुर्खियां बटोर चुके थे. कोहली का कहना था कि वह दर्शक दीर्घा में बैठे कुछ लोगों के तानों से तंग आ गए थे. इसलिए उन्होंने ऐसा किया. घूम-फिरकर वही बात- कि कोहली किसी का उधार रखने नहीं आए हैं.
यह कोहली के करियर की शुरुआत थी. दिल्ली का 23 साल का नौजवान अड़ियल तो था, लेकिन प्रतिभाशाली भी. ऑस्ट्रेलिया के पहले दौरे पर शतक, साउथ अफ्रीका के पहले दौरे पर शतक और फिर न्यूजीलैंड के पहले दौरे पर भी शतक. कोहली के रवैये के लिए उनकी आलोचना करने वाले भी उनकी बल्लेबाजी के कायल बनते जा रहे थे.
अब वक्त को यह भी दरकार था कि कोहली थोड़े परिपक्व हो जाएं. साल 2014 में हुए इंग्लैंड दौरे ने कोहली को एक रिएलिटी चेक दिया. सीरीज की 10 पारियों में कोहली कुल 134 रन बना सके. चार बार जेम्स एंडरसन का शिकार हुए. आक्रामक क्रिकेट को अपनी मीरास बनाने वाले कोहली जब इंग्लैंड के मुश्किल माहौल में खुद को नहीं ढाल सके तो मांग उठने लगी कि अब उन्हें टीम से बाहर कर देना चाहिए. लेकिन कोहली का अंत ऐसे कहां होने वाला था. अभी क्रिकेट जगत को देखना था कि कोहली वह हीरा है जो दबाव की पराकोटि में सबसे तेज़ चमकता है.
कोहली को टीम में न सिर्फ बरकरार रखा गया, बल्कि जब 2014 के ऑस्ट्रेलिया दौरे पर धोनी चोटिल थे तो उनकी ग़ैर-मौजूदगी में कप्तान भी कोहली को ही बनाया गया. यह सीरीज़ भारत हार गया. लेकिन जिन्होंने इस टेस्ट सीरीज़ को अनुभव किया, उनके लिए यह कई विजयों से ऊपर थी. कोहली ने इस दौरे पर न सिर्फ भरपूर रन बनाए, बल्कि अपनी आक्रामक कप्तानी की एक झलक भी दी.
इस सीरीज़ को देखकर शायद धोनी भी समझ गए कि भारतीय टेस्ट क्रिकेट को एक नया लीडर मिल चुका है. इसलिए उन्होंने इस फॉर्मैट से संन्यास ले लिया. इसके बाद जो शुरू हुआ, उसे आप भारतीय क्रिकेट का स्वर्णिम दौर कह सकते हैं.
...जब शुरू हुआ कप्तानी का दौर
कोहली की अगुवाई में भारतीय टीम एक ऐसी ताकत बन गई, जिसे रोकना हर किसी के बस की बात नहीं थी. भारत कोहली की कप्तानी में घरेलू सरज़मीन पर एक भी सीरीज़ नहीं हारा. आठ साल में मैच हारा तो सिर्फ दो. यहां यह बता देना भी ज़रूरी है कि कोहली ने यह टेस्ट टीम वैसे ही बनाई थी, जैसे रोम बना था. ईंट दर ईंट.
कोहली ने अपने अतराफ़ में एक ऐसी टीम खड़ी की जो दुनिया के किसी भी हिस्से में, किसी भी मैदान पर विरोधी को धूल चटा सकती थी. कोहली की असली ताकत भले ही उनके गेंदबाज़ रहे, लेकिन उन्होंने अपनी बल्लेबाज़ी से भी टीम में एक मिसाल कायम की. कोहली की टेस्ट औसत जहां 46.85 है, वहीं बतौर कप्तान यह आंकड़ा 54.80 पर पहुंच जाता है.
जब कोहली ने कप्तानी संभाली तो भारत टेस्ट रैंकिंग में सातवें नंबर पर था. जब छोड़ी तो शीर्ष पर. कोहली के टेस्ट करियर की शायद सबसे बड़ी हाइलाइट यही है कि उन्होंने शांति और अनुशासन में खेले जाने वाले इस खेल को अपनी आक्रामकता के रंग में रंग दिया. अब सफेद जर्सी पहनकर खेलने वाली भारतीय टीम को जीत से ज़्यादा कुछ प्यारा नहीं था.
कोहली की यही लीडरशिप थी कि भारत ने 2018 में ऑस्ट्रेलियाई सरज़मीन पर पहली बार बॉर्डर-गावस्कर ट्रॉफी जीती. सेंचुरियन में 2021 में 30 साल के इंतज़ार के बाद कोई टेस्ट जीता. और 2021 में ही इंग्लैंड में सीरीज़ 2-2 से बराबर की. इसमें लॉर्ड्स का वह टेस्ट मैच भी शामिल था जिसकी चौथी पारी के हर ओवर में भारतीय गेंदबाज़ आग उगल रहे थे. हर मैच और हर सीरीज़ के साथ परिपक्व हुए कोहली ने भारत को यह यकीन दिला दिया था कि यह टीम पत्थर से भी पानी निकाल सकती है.
लेकिन यह सब तो आंखों के सामने चल रहा था. पर्दे के पीछे शायद और भी बहुत कुछ घट रहा था. सेंचुरियन की ऐतिहासिक जीत के दो मैच बाद कोहली ने टेस्ट क्रिकेट की कप्तानी छोड़ दी. बीते तीन सालों में कोहली के बल्ले से ख़ास रन भी नहीं निकले थे. ऐसा नहीं था कि रन बने ही नहीं थे, लेकिन यह उनके क़द को जस्टिफाई नहीं करते थे.
हो गई थी अंत की शुरुआत?
बहरहाल, 13 मार्च 2023 को अहमदाबाद में ऑस्ट्रेलिया के खिलाफ कोहली के बल्ले से एक शतक निकला. लगा कि अब रंगत लौट आई है. जब भारतीय टीम कुछ महीने बाद टेस्ट सीरीज खेलने वेस्ट इंडीज गई तो वहां भी कोहली ने एक शतक जड़ा. साउथ अफ्रीका गए तो वहां भी बल्ले से रन निकले. सब कुछ सामान्य लग रहा था लेकिन 2024 की शुरुआत में इंग्लैंड के खिलाफ हुई टेस्ट सीरीज में कोहली नहीं खेल सके.
क्या यह टेस्ट सीरीज़ न खेलना कोहली को भारी पड़ा? या वह इस समय ही थक चुके थे और टेस्ट क्रिकेट को अलविदा कहने का मन बना रहे थे? इसका जवाब शायद सिर्फ कोहली के पास ही है. क्योंकि जब कोहली ब्रेक से लौटे तो घरेलू टेस्ट सीज़न के पांच मैचों में 21.33 की औसत से 192 रन ही बना सके. स्ट्रगल करते हुए कोहली के पास ऑस्ट्रेलिया में जाकर अपनी फॉर्म सुधारने का मौका था. इस सीरीज़ के पहले मैच में उन्होंने शतक भी जड़ा लेकिन बाकी चार पारियों में ऑफ स्टंप से बाहर जाती हुई गेंदें कोहली का विकेट खा गईं.
इसके बाद कोहली मुंबई में संजय बांगर के साथ लाल गेंद से प्रैक्टिस करते हुए दिखे. दिल्ली में रणजी मैच खेलने भी आए. देखने वालों को लगा कि कोहली एक बार फिर भारत के लिए टेस्ट क्रिकेट खेलेंगे. अपने 10,000 रन पूरे करेंगे. अपनी औसत एक बार फिर सुधारेंगे. महान सचिन तेंदुलकर की तरह 51 टेस्ट शतक तो शायद न लगा पाएं, लेकिन कुछ शतक लगाकर अलविदा कहेंगे. अपने फैन्स को फेयरवेल कहने का मौक़ा देंगे.
यह सब नहीं हुआ. कोहली नहीं आए. बस आया एक संदेश. कि उनके जाने का वक्त हो चुका है. कोहली ने अपने फैन्स को उन्हें आखिरी बार टेस्ट क्रिकेट खेलते हुए देखने का मौका नहीं दिया. जैसे उन्होंने अपने फैन्स को उन्हें आखिरी बार टेस्ट में कप्तानी करते हुए देखने का मौका नहीं दिया. कोहली इतनी ख़ामोशी से भारतीय क्रिकेट की सेवा करते चले गए कि किसी को उन्हें 'सेल्फलेस' बुलाने का मौका भी नहीं मिला.
शायद यही कोहली और टेस्ट क्रिकेट का रिश्ता रहा. जिस चीज़ को सबसे ज़्यादा चाहा और अपना सब कुछ दिया, उससे कुछ हासिल करने की आस नहीं लगाई. जब टेस्ट क्रिकेट के सबसे सफल कप्तान बनने से सिर्फ 13 मैच दूर थे, तब टेस्ट में कप्तानी छोड़ दी. जब टेस्ट क्रिकेट में 10,000 रन पूरे करने से सिर्फ 770 रन दूर थे, तब फॉर्मैट को ही अलविदा कह दिया. 30 शतक, 46.85 की औसत, और 9230 रन के साथ टेस्ट क्रिकेट से दामन छुड़ा लिया.
चाहने वाले इंतज़ार करते रहे कि एक बार फिर कोहली सफेद जर्सी पहनकर मैदान पर उतरेंगे और गेंदबाजों को नाकों चने चबवाएंगे. बाट जोहते रहे कि इस रंगमंच का सबसे बड़ा कलाकार नाटक के आखिरी हिस्से में कुछ ऐसा जादू करेगा कि देखने वाले देखते रह जाएंगे. लेकिन कोहली ने कहा अब बस.
कोहली का टेस्ट क्रिकेट को अलविदा कहना यूं है जैसे कोई कविता अधूरी छूट गई हो, कोई पेशेनगोई सच होते-होते रह गई हो या कोई खूबसूरत ख्वाब देखते-देखते आंख खुल गई हो. इस गमन को चाहे जो उपमा दी जाए, लेकिन यह स्वीकार तो करना होगा कि भारतीय/टेस्ट क्रिकेट के एक युग का अंत हो गया है.