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एक तीर से दो निशाने! IIT Madras ने खेती के कूड़े से बनाया प्लास्टिक का विकल्प... कैसे बनाया यह मटेरियल, क्यों अहम है यह प्रोजेक्ट, जानिए सब कुछ

शोधकर्ता स्मृति भट्ट का कहना है कि यह रिसर्च न सिर्फ खेती के कूड़े को खुले में जलाने से रोकती है, बल्कि रिसाइकलिंग इकॉनमी के सिद्धांतों के अनुरूप भी है.

Photo: IIT Madras Photo: IIT Madras

भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान, मद्रास (IIT Madras) के रिसर्चर्स ने रिसाइकलिंग के क्षेत्र में बड़ी सफलता हासिल करते हुए कृषि अपशिष्ट (Farming Waste) से एक ऐसा पैकेजिंग मटेरियल तैयार किया है जो आने वाले समय में पैकेजिंग में इस्तेमाल होने वाले पारंपरिक प्लास्टिक फोम की जगह ले सकता है. यह तकनीक खुले में खेती का कूड़ा जलाने से होने वाले प्रदूषण का एक समाधान साबित हो सकता है. 

रिसर्च में क्या पता चला?
इस रिसर्च को केंद्र सरकार और आईआईटी मद्रास के न्यू फैकल्टी इनिशिएशन ग्रांट ने फंड किया था. वैज्ञानिकों ने इस रिसर्च में दिखाया है कि खेती और कागज़ के कचरे में उगने वाले माइसीलियम-बेस्ड बायोकंपोज़िट्स से अच्छी क्वालिटी की पैकेजिंग तैयार की जा सकती है. यह पैकेजिंग बायो-डिग्रेडेबल भी होगी. 

आईआईटी मद्रास का यह इनोवेशन दो बड़ी समस्याओं को हल कर सकता है. पहला, प्लास्टिक प्रदूषण और दूसरा कृषि अपशिष्ट निपटान. इन दो समस्याओं का समाधान करके इस इनोवेशन के पास समाज और पर्यावरण दोनों पर महत्वपूर्ण प्रभाव डालने की क्षमता है. 

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कैसे तैयार किया यह मटेरियल?
यह मटेरियल तैयार करने के लिए वैज्ञानिकों ने कृषि और कागज़ के कचरे पर गैनोडर्मा ल्यूसिडम और प्ल्यूरोटुसोस्ट्रेटस जैसे मशरूम्स उगाए. सबसे पहले उन्होंने यह देखा कि कूड़े और फंगस का कौनसा सही अनुपात सबसे सही है. और फिर उन्होंने ऐसे एक प्लास्टिक फोम जैसे मटेरियल का रूप दे दिया. 

कृषि अवशेषों को मजबूत बायो-डिग्रेडेबल पैकेजिंग में बदलकर यह रिसर्च भारत में बनने वाले प्लास्टिक कचरे को कम करने में योगदान देती है. वर्तमान में  भारत में हर साल 40 लाख टन से ज्यादा प्लास्टिक का कचरा फेंका जाता है. साथ ही यह रिसर्च हर साल बनने वाले 35 करोड़ टन खेती के कूड़े का भी इस्तेमाल करती है.

अपने प्रोडक्ट के लिए बनाया स्टार्टअप
वैज्ञानिकों ने इस मटेरियल के लिए नेचरवर्क्स टेक्नोलॉजीज़ नाम के एक स्टार्ट-अप की स्थापना की है. इसकी सह-स्थापना आईआईटी मद्रास के संकाय सदस्य और प्रमुख रिसर्चर डॉ. लक्ष्मीनाथ कुंदनती ने की है. यह स्टार्ट-अप नवीन उत्पादों के विकास और व्यावसायीकरण, उद्योग भागीदारों के साथ मिलकर टेक्नोलॉजी हस्तांतरण और इन समाधानों को व्यापक रूप से अपनाने के लिए लाइसेंसिंग समझौतों को अंजाम देने की कोशिश करेगा.

इसके अलावा रिसर्चर इस प्रोडक्ट के विकास में तेजी लाने के लिए सरकारी फंडिंग हासिल करने और यह सुनिश्चित करने की कोशिश करेंगे कि इस रिसर्च का समाज पर ठोस और सकारात्मक प्रभाव पड़े. रिसर्च के निष्कर्ष जून 2025 में प्रतिष्ठित मैगज़ीन बायोरिसोर्स टेक्नोलॉजी रिपोर्ट्स में प्रकाशित हुए थे.  इस रिसर्च पेपर के सह-लेखक आईआईटी मद्रास की शोध छात्राएं सैंड्रा रोज़ बीबी और विवेक सुरेंद्रन और डॉ. लक्ष्मीनाथ कुंदनती हैं.

क्यों अहम है यह रिसर्च?
आईआईटी मद्रास के एप्लाइड मैकैनिक्स और बायो-मेडिकल इंजीनियरिंग विभाग में असिस्टेंट प्रोफेसर डॉ. लक्ष्मीनाथ कुंदनती ने इस रिसर्च की अहमियत पर कहा, "भारत में हर साल 35 करोड़ टन से ज्यादा कृषि अपशिष्ट पैदा होता है. इसमें से ज्यादातर को जला दिया जाता है या सड़ने के लिए छोड़ दिया जाता है."

उन्होंने कहा, "इससे वायु प्रदूषण होता है और बहुमूल्य संसाधनों की बर्बादी होती है. हमारी रिसर्च का उद्देश्य माइसीलियम-आधारित बायोकंपोजिट को टिकाऊ, जैव-निम्नीकरणीय पैकेजिंग सामग्री के रूप में विकसित करके, प्लास्टिक वेस्ट और खेती के कूड़े, दोनों चुनौतियों का समाधान करना था." 

एक्सपर्ट्स का कहना है कि ईपीएस और ईपीई (एक्सपेंडेड पॉलीस्टाइरीन) जैसे प्लास्टिक फोम की जगह माइसीलियम-आधारित बायोकंपोजिट लगाने से लैंडफिल पर बोझ काफी कम हो सकता है. माइक्रोप्लास्टिक बनने से रोका जा सकता है और प्लास्टिक उत्पादन व अपशिष्ट जलाने से जुड़े ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन में कमी आ सकती है. 

यह तकनीक कृषि उप-उत्पादों की मांग पैदा करके ग्रामीण विकास को भी बढ़ावा देती है, जिससे किसानों और ग्रामीण समुदायों के लिए आय के नए ज़रिए पैदा हो सकते हैं. इस रिसर्च का लक्ष्य पैकेजिंग उद्योगों से होने वाले पर्यावरणीय नुकसान को कम करना और ऐसे टिकाऊ विकल्पों को बढ़ावा देना है जो पृथ्वी को एक स्वच्छ प्लैनेट बना सकें.

शोधकर्ता स्मृति भट्ट का कहना है, "यह दृष्टिकोण न सिर्फ कृषि अवशेषों को खुले में जलाने से रोकता है, बल्कि रिसाइकलिंग इकॉनमी के सिद्धांतों के अनुरूप भी है."