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The Bridge between India-China: 1400 पहले नालंदा पढ़ने आए भिक्षु ने रखी थी भारत-चीन दोस्ती की नींव, जानिए कौन हैं भारत में 'मोक्षदेव' कहलाने वाले Xuanzang

सदियों बाद भी शुआनज़ांग यह यात्रा सिर्फ़ एक धार्मिक तीर्थ नहीं, बल्कि एक सांस्कृतिक सेतु के रूप में याद की जाती है. शुआनज़ांग की यात्रा हमें यह बताती है कि कभी भारत और चीन के बीच की सीमा प्रतिद्वंद्विता की नहीं, बल्कि ज्ञान, करुणा और सम्मान की पुलिया थी.

शुआनज़ांग भारत को अपना दूसरा घर कहते थे. शुआनज़ांग भारत को अपना दूसरा घर कहते थे.

भारत और चीन एक बार फिर करीब आने लगे हैं. दोनों देशों के बीच के राजनयिक रिश्ते सुधरने लगे हैं. तियानजिन में चल रहे शंघाई कोऑपरेशन ऑर्गेनाइजेशन (SCO) में हिस्सा लेकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी इस बात पर मुहर लगा दी है. भारत-चीन के ये बनते-बिगड़ते रिश्ते दरअसल 1400 साल पुराने हैं.

इन रिश्तों की शुरुआत सातवीं शताब्दी ईस्वी में चीन के एक युवा भिक्षु शुआनज़ांग (Xuanzang) ने की थी. आइए जानते हैं सातवीं शताब्दी में कैसे शिक्षा हासिल करने की लालसा एक चीनी भिक्षु को भारत लेकर आई और वह भारत-चीन के बीच का पुल बन गया. 

कौन थे शुआनज़ांग? 
शुआनज़ांग सातवीं शताब्दी में एक चीनी भिक्षु थे जो बौद्ध धर्म की शिक्षा हासिल करना चाहते थे. इसके लिए उन्होंने गुप्त रूप से अपना देश छोड़ा और भारत की ओर एक बेहद कठिन और लंबी 17 साल की यात्रा शुरू की. उनका उद्देश्य था प्रामाणिक बौद्ध ग्रंथ खोजना और नालंदा विश्वविद्यालय के महान आचार्यों से सीधा ज्ञान प्राप्त करना. गोबी मरुस्थल पार करने के बाद, पामीर पर्वत लांघते हुए और डाकुओं का सामना करते हुए वह अंततः भारत पहुंचे. 

अमेरिकी रिसर्च संगठन ईबीएससीओ (EBSCO) के अनुसार, यहां भारतीय राजाओं और भिक्षुओं ने उनका गर्मजोशी से स्वागत किया. उस समय दुनिया के सबसे बड़े शिक्षा केंद्र नालंदा विश्वविद्यालय ने उनका स्वागत किया. यहां आकर उन्होंने दर्शन, चिकित्सा और तर्कशास्त्र की शिक्षा आचार्य शीलभद्र जैसे महान गुरुओं से प्राप्त की. लेकिन यह कहानी सिर्फ ज्ञान की नहीं, बल्कि मित्रता की भी है. 

भारत ने छू लिया शुआनज़ांग का दिल
भारत की अतिथि-परंपरा और अपनत्व से प्रभावित होकर शुआनज़ांग ने भारत को अपना “दूसरा घर” कहा. बदले में, भारतीय विद्वानों ने भी उनके समर्पण की सराहना की और उन्हें 600 से ज्यादा पांडुलिपियां एकत्र करने में सहायता दी. साथ ही उन्हें एक नया नाम भी दिया गया.

दरअसल जब कोई विदेशी भिक्षु भारत आता और यहां दीक्षा लेता, तो अक्सर उसे संस्कृत में नया नाम दिया जाता था. यह नाम उसकी साधना, उद्देश्य या गुणों के आधार पर रखा जाता. इसलिए शुआनज़ांग को मोक्षदेव का नाम मिला. जब वे चीन लौटे, तो अपने साथ केवल धार्मिक ग्रंथ ही नहीं बल्कि चिकित्सा, कला और कई नए विचार भी ले गए.

जीवन के शेष वर्षों में उन्होंने संस्कृत ग्रंथों का चीनी भाषा में अनुवाद किया और इस प्रकार पूर्वी एशिया में बौद्ध दर्शन की नींव मजबूत की. उनकी रचना “ग्रेट तांग रिकॉर्ड्स ऑन द वेस्टर्न रीजन” आज भी सातवीं शताब्दी के भारत का अनमोल दस्तावेज़ मानी जाती है. 

सदियों बाद भी यह यात्रा सिर्फ़ एक धार्मिक तीर्थ नहीं, बल्कि एक सांस्कृतिक सेतु के रूप में याद की जाती है. शुआनज़ांग की यात्रा हमें यह बताती है कि कभी भारत और चीन के बीच की सीमा प्रतिद्वंद्विता की नहीं, बल्कि ज्ञान, करुणा और सम्मान की पुलिया थी. यही कारण है कि शुआनज़ांग को अक्सर भारत-चीन मित्रता का “राजदूत” कहा जाता है.