
चीन ने तिबत में मौजूद यारलुंग त्सांगपो नदी (Yarlung पर दुनिया का सबसे बड़ा बांध बनाना शुरू कर दिया है. चीन ने इस बांध के निर्माण की घोषणा 2020 में अपनी 14 वर्षीय योजना के तहत कर दी थी. चीन के हिसाब से यह इस 'शताब्दी की परीयोजना' है. लेकिन भारत और बांग्लादेश के लिए यह बांध चिंता का विषय बनकर उभरा है.
भारत और बांग्लादेश के निचले तटवर्ती राज्यों के साथ-साथ तिब्बती समूहों और पर्यावरणविदों ने भी इस बांध की आलोचना की है. लेकिन इसकी वजह क्या है? आइए समझते हैं इस बांध का इतिहास क्या है, इसकी क्या खासियत हैं और यह भारत-बांग्लादेश की आलोचना का शिकार क्यों बना है.
ब्रह्मपुत्र पर चीन का 'प्रोजेक्ट ऑफ द सेंचुरी'
चीन जिस नदी को यारलुंग त्सांगपो नदी के नाम से पुकारता है, उसे भारत में ब्रह्मपुत्र और बंगलादेश में जमुना नदी कहा जाता है. चीन ने दिसंबर 2024 में तिब्बत की यारलुंग त्साङ्पो नदी के निचले भाग में “Medog Hydropower Station” नामक महाबांध परियोजना की मंजूरी दी और जुलाई 2025 में इसका आधिकारिक निर्माण शुरू हुआ. इस प्रोजेक्ट में पांच कैस्केड हाइड्रोपावर स्टेशन होंगे जिनकी कुल लागत लगभग 1.2–1.3 ट्रिलियन युआन (170 अरब डॉलर) के आसपास अनुमानित है.
क्यों खास है यह प्रोजेक्ट?
तीन गुना उत्पादन क्षमता : यह बांध सालाना लगभग 300 अरब किलोवाट‑घंटा बिजली उत्पादन करेगा. यह दुनिया के मौजूदा सबसे बड़े बांध थ्री गॉर्जेस डैम (Three Gorges Dam) से तीन गुना ज्यादा है. ध्यान देने वाली बात है कि दुनिया का मौजूदा सबसे बड़ा बांध भी चीन के यांग्त्ज़े नदी पर मौजूद है.
बढ़ती ऊर्जा सुरक्षा एवं आर्थिक विकास : चीन इस प्रोजेक्ट को तिब्बत के आर्थिक विकास, रोज़गार सृजन और ऊर्जा आत्मनिर्भरता में महत्वपूर्ण कदम मानता है. साथ ही यह उसके 2060 तक कार्बन न्यूट्रल लक्ष्य तक पहुंचने की कोशिश का हिस्सा है.
इसके अलावा यार्लुंग त्सांगपो नदी की ऊंचाई भी इस प्रोजेक्ट को खास बनाती है. यह नदी हिमालय की चोटियों से उतरते हुए असम के समतल मैदानों में उतरती है. इतनी ऊंचाई से आने के कारण यह नदी ढेर सारी ऊर्जा उत्तपन्न करती है. सिर्फ चीन ही नहीं, बल्कि भारत ने भी इस नदी की ऊर्जा को रिन्यूएबल एनर्जी में बदलने की कोशिश की है.
भारत एवं बांग्लादेश क्यों कर रहे आलोचना?
अरुणाचल प्रदेश और असम की राज्य सरकारें इस प्रोजेक्ट को संभावित “Water Bomb” कहकर चेतावनी दे चुकी हैं. इन राज्यों को डर है कि चीन अचानक या रणनीतिक रूप से पानी छोड़ सकता है जो नदी के रास्ते में आने वाली आबादी के लिए घातक हो सकता है. सूखे में पानी रोकने से लेकर मॉनसून में अचानक पानी छोड़कर बाढ़ जैसे हालात बनाने तक, चीन इस बांध को भारत के खिलाफ इस्तेमाल कर सकता है.
इसके अलावा चीन के बांध से नदी के तलछट प्रवाह में बाधा आने की आशंका है. इसके कारण भारत और बांग्लादेश के कृषि भूमि की मिट्टी की उर्वरता प्रभावित हो सकती है. खासकर बांग्लादेश के गंगा‑ब्राह्मपुत्र‑मेघना डेल्टा में यह खेती‑और फिशिंग को प्रभावित कर सकता है. सिर्फ यही नहीं, चीन ने अक्सर इस परियोजना से जुड़ी जानकारी भारत से छिपाई है. अब तक पानी को बांटने को लेकर कोई संधि भी नहीं हुई है. इससे भारत–बांग्लादेश में भरोसे की कमी बढ़ रही है.
चीन का यह यार्लुंग त्सांगपो बांध परियोजना ऊर्जा उत्पादन, आर्थिक विकास और चीन की ऊर्जा रणनीति में क्रांतिकारी पहल बताई जा रही है. लेकिन भारत और बांग्लादेश में इस संभावना को लेकर गंभीर सुरक्षा, पर्यावरणीय और जल अधिकार संबंधी चिंताएं हैं. अगर बांध की नीतियों में पारदर्शिता नहीं लाई गई और साझा जल संसाधन प्रबंधन पर ठोस संधि नहीं हुई, तो यह दक्षिण एशिया में पानी से जुड़ी राजनीति एक नाजुक मोड़ ले सकती है.