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Story of 14th General Elections: देश का वो चुनाव, जिसमें सोनिया गांधी ने खुद पीएम ना बनकर डॉ. मनमोहन सिंह को दे दी थी कुर्सी, पढ़िए कहानी 14वें आम चुनाव की

India's Fourteenth General Election: 2004 के आम चुनाव में देश को मनमोहन सिंह के रूप में आपनी पहला सिख और गैर-हिन्दू प्रधानमंत्री मिला. उनके नेतृत्व में, भारत ने अपनी लोकतांत्रिक यात्रा में एक नए अध्याय की शुरुआत की. 14वीं लोकसभा के 543 सदस्यों को चुनने के लिए करीब 67 करोड़ लोगों ने वोटिंग की थी.

Dr Manmohan Singh (Photo: India Today Group) Dr Manmohan Singh (Photo: India Today Group)
हाइलाइट्स
  • देश को मिला अपना पहला सिख और गैर-हिन्दू पीएम

  • डॉ. मनमोहन सिंह को दे दी थी कुर्सी

भारतीय लोकतंत्र के इतिहास में 14वीं लोकसभा चुनाव जैसी कुछ ही घटनाएं रही हैं जिन्होंने देश का ध्यान खींचा है. ये वो चुनाव था जिसमें सोनिया गांधी (Sonia Gandhi) ने पीएम की कुर्सी डॉ मनमोहन सिंह (Dr Manmohan Singh) को दे दी थी. देश में 20 अप्रैल से 10 मई 2004 के बीच चार चरणों में आम चुनाव हुए. 14वीं लोकसभा के 543 सदस्यों को चुनने के लिए करीब 67 करोड़ लोग वोटिंग के लिए तैयार थे. सात राज्यों में राज्य सरकारें चुनने के लिए विधानसभा चुनाव भी हुए. ये पहला ऐसा चुनाव था जिसमें पूरी तरह से इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीनों (EVM) से वोट डाले गए थे. 

प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी (Atal Bihari Vajpayee) के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार ने 2004 में अपने शासन के पांच साल पूरे किए कर लिए थे. अब सभी अगले चुनाव के लिए खुद को तैयार कर रहे थे. जैसे-जैसे पूरे देश में चुनावी सरगर्मी बढ़ रही थी, विश्लेषकों और राजनीतिक पंडितों ने भी खुद को तैयार कर लिया था. 'इंडिया शाइनिंग' कैंपेन (India Shining Campaign) की प्रगति को देखते हुए एनडीए (NDA) को भरोसा था कि ये चुनाव भी वही जीतने वाले हैं और उन्हें स्पष्ट बहुमत मिलने वाला है. 

बीजेपी के शासन में अर्थव्यवस्था भी बढ़ रही थी. भारत का विदेशी मुद्रा भंडार 100 अरब डॉलर (दुनिया में सातवां सबसे बड़ा) से ज्यादा हो चुका था. खूब रोजगार के अवसर भी पैदा हुए. लेकिन जनता का इरादा इसबार अलग था.

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(फोटो- इडिया टुडे)
(फोटो- इंडिया टुडे)

चुनावी युद्ध के मैदान में जबरदस्त संघर्ष देखने को मिला, जिसमें बीजेपी और उसके सहयोगियों ने खुद को कांग्रेस और उसके क्षेत्रीय सहयोगियों के खिलाफ खड़ा कर दिया था. इसके शीर्ष पर दो लोग थे - अटल बिहारी वाजपेयी और सोनिया गांधी. इसका कारण ये भी था कि तीसरे मोर्चे का कोई विकल्प दूर-दूर तक नजर नहीं आ रहा था. ये लड़ाई केवल बीजेपी और कांग्रेस की थी. 

भारतीय राजनीति की भूलभुलैया भरी दुनिया में, गठजोड़ बेहद उत्सुकता के साथ बनते और टूटते रहे हैं. जहां बीजेपी ने तेलुगु देशम पार्टी (TDP) और अन्नाद्रमुक (AIADMK) जैसे क्षेत्रीय दिग्गजों के साथ रणनीतिक साझेदारी बनाई, वहीं कांग्रेस ने क्षेत्रीय स्तर पर गठबंधनों का एक जाल बुनने की कोशिश की. वामपंथी दलों ने विचारों को तवज्जों देते हुए अपनी अलग जगह बनाई.  

चुनाव से पहले भविष्यवाणियां केवल यही की जा रही थी कि भाजपा को भारी बहुमत मिलने वाला है. लेकिन एग्जिट पोल (Exit Poll) (चुनाव के तुरंत बाद और गिनती शुरू होने से पहले) ने त्रिशंकु संसद की भविष्यवाणी कर दी था. हालांकि, एग्जिट पोल भी अंतिम आंकड़ों के करीब भी नहीं पहुंच सके. ऐसे में जब बीजेपी को यह दिखने लगा कि इस बार रिजल्ट पूरी तरह से उसके पक्ष में नहीं हैं, उसने अपने अभियान का फोकस इंडिया शाइनिंग से बदलकर स्थिरता के मुद्दों पर केंद्रित कर दिया. लेकिन कांग्रेस को इस चुनाव में बड़े पैमाने पर गरीब, ग्रामीण, निचली जाति और अल्पसंख्यक मतदाताओं का समर्थन मिल रहा था.

(फोटो- इडिया टुडे)
(फोटो- इंडिया टुडे)

13 मई को, जैसे ही चुनावी युद्ध के मैदान में धूल जम गई. बीजेपी की हार हो गई थी. कांग्रेस के हिस्से में जीत आई. कांग्रेस को सहयोगियों की मदद से 543 में से 335 से ज्यादा सदस्यों (बसपा, सपा, एमडीएमके और वाम मोर्चे के बाहरी समर्थन सहित) का बहुमत मिला. हालांकि, सोनिया गांधी ने प्रधानमंत्री पद अस्वीकार कर दिया था. इसके बजाय, उन्होंने पूर्व वित्त मंत्री डॉ. मनमोहन सिंह से यह पद संभालने को कहा. मनमोहन सिंह ने कभी भी लोकसभा सीट नहीं जीती, लेकिन मनमोहन सिंह भारत के पहले सिख और गैर-हिन्दू प्रधानमंत्री बने. उनके नेतृत्व में, भारत ने अपनी लोकतांत्रिक यात्रा में एक नए अध्याय की शुरुआत की. उनका पूरा कार्यकाल व्यावहारिकता, समावेशिता और उद्देश्य की एक नई भावना के साथ आगे बढ़ता गया.