
हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत के महानतम दिग्गजों में से एक पंडित शिव कुमार शर्मा का निधन हो गया है. मशहूर भारतीय संगीतकार और संतूर वादक शिव कुमार शर्मा ने 84 साल की उम्र में आखिरी सांस ली. शिव कुमार शर्मा ने भारतीय संगीत को अंतरराष्ट्रीय पहचान दिलाने में अहम भूमिका निभाई. पंडित शिव कुमार शर्मा पिछले काफी समय से बीमार चल रहे थे.
शिव कुमार शर्मा की किडनी में परेशानी थी. इसके अलावा, कोरोना के कारण शिव कुमार शर्मा का बाहर निकलना न के बराबर हो गया था. हालांकि, 10 मई 2022 को उनका निधन दिल का दौरा पड़ने से हुआ. और इसी के साथ हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत का एक दौर मानो समाप्त हो गया.
पांच साल की उम्र से ली संगीत की शिक्षा
शिव कुमार शर्मा का जन्म 13 जनवरी, 1938 को जम्मू में हुआ था. शर्मा ने पांच साल की उम्र में संगीत की पढ़ाई शुरू कर दी थी. उनके शिक्षक उनके अपने पिता, उमा दत्त शर्मा थे, जो एक कुशल हिंदुस्तानी गायक के साथ-साथ तबला और पखावज वादक थे. शिव कुमार ने एक गायक और तबला वादक के रूप में प्रशिक्षण लिया, और 12 साल की उम्र तक वे जम्मू में स्थानीय रेडियो स्टेशन के लिए परफॉर्म करते रहे थे.
जब शिव कुमार थोड़े बड़े हुए तो उनके पिता ने उन्हें संतूर से परिचित कराया. संतूर को कश्मीर क्षेत्र के सूफी संगीत में अच्छी तरह से जाना जाता था, लेकिन हिंदुस्तानी परंपरा के लिए यह वाद्य अकदम अनजाना था. अपने पिता के साथ से, शिव कुमार हिंदुस्तानी संगीत को प्रदर्शित करने के लिए इस वाद्य यंत्र का उपयोग करने लगे.
मशहूर थी शिव-हरी की जोड़ी
1955 में शर्मा ने संतूर पर हिंदुस्तानी संगीत का अपना पहला प्रमुख सार्वजनिक प्रदर्शन दिया. इसके अगले वर्ष, उन्होंने फिल्म 'झनक झनक पायल बाजे' के एक दृश्य के लिए बैकग्राउंड संगीत तैयार किया. उनका पहला सिंगल एलबम 1960 में रिकॉर्ड किया गया था. उनके काम को बहुत सराहना मिली पर कई परंपरावादियों ने उनकी आलोचना की, जिन्हें लगता था कि संतूर पर हिंदुस्तानी संगीत की बारीकियों को लोगों तक नहीं पहुंचाया जा सकता है.
इसके जवाब में, शिव कुमार शर्मा ने इस वाद्य यंत्र की स्ट्रिंग्स की व्यवस्था और ट्यूनिंग को बदल दिया. उनके अथक प्रयास और तकनीकी गुणों के परिणामस्वरूप, संतूर को हिंदुस्तानी संगीत में धीरे-धीरे स्वीकृति मिल गई. और 20 वीं शताब्दी के अंत तक इस वाद्य को हिंदुस्तानी परंपरा में मजबूती से शामिल किया गया.
1967 में, उन्होंने बांसुरीवादक हरिप्रसाद चौरसिया और संगीतकार बृज भूषण काबरा के साथ मिलकर 'कॉल ऑफ द वैली' नामक एक एल्बम का निर्माण किया. यह एल्बम भारतीय शास्त्रीय संगीत की सबसे बड़ी हिट एल्बमों में से एक बन गई. अपने पूरे करियर के दौरान, उन्होंने 'द ग्लोरी ऑफ स्ट्रिंग्स - संतूर' (1991), 'वर्षा - ए होमेज टू द रेन गॉड्स' (1993), 'हंड्रेड स्ट्रिंग्स ऑफ संतूर' (1994), 'द पायनियर ऑफ संतूर (1994)', 'संप्रदाय' (1999), 'वाइब्रेंट म्यूजिक फॉर रेकी' (2003), 'एसेंशियल इवनिंग चैंट्स' (2007) 'द लास्ट वर्ड इन संतूर' (2009) और संगीत सरताज (2011) ) सहित संतूर संगीत पर कई नवीन प्रयोगात्मक एल्बम जारी किए.
उन्होंने 'सिलसिला' (1981), 'फासले' (1985), 'चांदनी' (1989), 'लम्हे' (1991) और 'डर' (1993) जैसी कई फिल्मों के लिए हरि प्रसाद चौरसिया के साथ संगीत भी तैयार किया. उन्हें 'शिव-हरि' संगीत जोड़ी के रूप में जाना जाने लगा था.
2002 में, उन्होंने 'जर्नी विद ए हंड्रेड स्ट्रिंग्स: माई लाइफ इन म्यूजिक' शीर्षक से अपनी आत्मकथा प्रकाशित की. वह अपने छात्रों को संतूर की शिक्षा बिना किसी शुल्क देते थे. भारत के अलावा दुनिया के विभिन्न हिस्सों जैसे जापान, जर्मनी, ऑस्ट्रेलिया और अमेरिका से छात्र उनके पास सीखने आते थे.
पुरस्कार व उपलब्धियां
1986 में, उन्हें 'संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार' मिला. उन्हें देश के दो शीर्ष नागरिक सम्मानों- पद्म श्री (1991) और पद्म विभूषण (2001) से भी सम्मानित किया गया. 1967 के हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत एल्बम 'कॉल ऑफ द वैली', 1981 की रोमांटिक ड्रामा फिल्म 'सिलसिला' और 1989 की रोमांटिक ड्रामा फिल्म 'चांदनी' के लिए उन्हें 'प्लैटिनम डिस्क' से सम्मानित किया गया.
1985 में, उन्हें अमेरिका के बाल्टीमोर शहर की मानद नागरिकता से सम्मानित किया गया था. बात अगर उनके निजी जीवन की करें तो उनकी पत्नी मनोरमा हैं और उनके दो बेटे हैं. उनका बेटा राहुल भी एक रमणीय संतूर वादक हैं और इस पिता-पुत्र की जोड़ी ने 1996 से कई संगीत समारोहों में एक साथ प्रदर्शन किया था.